अर्धनारीश्वर
अर्धनारीश्वर
चलो तनु तैयार हो जाओ तुम्हें चाय पिला कर लाता हूँ। चाय पीने का मन तो मेरा भी बहुत था पर यह कोई ऐसी वैसी चाय नहीं थी। इस चाय की चर्चा तो मैं महीनों यूं कहें शादी के बाद से सुन रही थी। वैसे मैं चाय की इतनी शौकीन नहीं हूँ, मैं तो काफी की दीवानी हूँ। तो इस कारण से शायद मुझे अच्छी चाय बनानी भी नहीं आती थी। मेरे पति या ससुराल वालों ने कभी कहा तो नहीं पर कभी कभार जब पतिदेव खुद से सुबह की चाय बनाते हैं तो मैं सोचती यह उनका मेरे लिए प्यार हैं या सुबह की पहली चाय अच्छी पीने की चाह। वैसे मैं बता दूं मुझे चाय बनाना एकदम नहीं आता ऐसा नहीं है। घर पर मेरे पापा को सिर्फ मेरे हाथ की बनी चाय अच्छी लगती थी। मैं भी ना क्या-क्या बातें लेकर बैठ गई बात तो उस चाय वाले की हो रही थी।
हाँ तो मैं जिस दिन से ब्याह कर आई, इनकी मित्र मंडली में चाय का जिक्र हो और उस चाय वाले का जिक्र ना हो ऐसा तो हो ही नहीं सकता था। पार्टी, दोस्तों की बैठक चाहे किसी के भी घर हो चाय पीते वक्त उसका जिक्र जरूर होता। कुछ दोस्तों की पत्नियाँ भी तारीफ करती, हाँ चाय तो वाकई बहुत अच्छी बनाता है। अब चाय की शौकीन ना होने के बाद भी मेरा मन एक बार तो चाय पीने का करने लगा था। वह दुकान मेरे पति के ऑफिस से थोड़ी दूरी पर ही थी तो वह लोग अक्सर शाम को वही से चाय पी कर आते थे। मैं कई बार आग्रह कर चुकी थी कि एक बार मुझे भी पीकर देखनी है। मेरे साथ ऐसा है कि मैं एक बार कोई चीज खा या पी लूं तो बनाते समय उसके स्वाद को पकड़ने की कोशिश करती हूँ। यही सोच कर कि एक बार जब मैं चाय पीकर देखूंगी तभी मुझे अपने पति की पंसदीदा चाय का स्वाद पता चलेगा।
हम तैयार होकर कार लेकर निकल पड़े। रास्ते में घर की जरूरतों की छोटी मोटी मासिक खरीदारी करते हुए मेरे पति ने कार अपने ऑफिस के बाहर पार्क कर दी और मुझे साथ लेकर थोड़ा आगे एक गली में बढ़े। गली पूरी तरह से बड़े-बड़े आफिस की इमारतों से भरी थी। सड़क पर छोटे-छोटे मैगी, वेज चॉप-राइस, डोसा आदि के ठेले लगे थे।
शायद ऑफिस के लोग खाना पसंद करते होंगे। थोड़ा आगे बढ़ने पर एक सुंदर सा रंग बिरंगा ठेला दिखा। जिस पर एक कोयले की सिगड़ी और एक गैस का चूल्हा और सब सामान व्यवस्थित रखा था। उसके आसपास की जगह भी बहुत साफ-सुथरी थी। बाजू में प्लास्टिक के आठ - दस स्टूल पड़े हुए थे। वहाँ एक बोर्ड पर लिखा था कृपया बुजुर्गों को बैठने दें। पढ़कर मैं सोचने लगी क्या हम अपनी पीढ़ी को इतने भी संस्कार नहीं दे पाए हैं कि हमें यह बातें लिखनी पड़ रही है। इस सोच से मुझे बाहर निकाला आस पास रखे गमलों और उन में लगे पौधों ने। गुलाब के फूलों के लगभग छह सात गमले दिख रहे थे। शायद फुटपाथ की एक ईट हटाकर या टूटी हुई ईट की जगह में एक लंबी लकड़ी लगा कर मोगरा की बेल लगी थी। ऐसे ही थोड़ी दूरी पर बोगन बेलिया कि बेल लगी थी। और मेरे दाएं हाथ को मेरे बिल्कुल पीछे शायद रात की रानी लगी हुई थी। मैं यह सब मंत्रमुग्ध होकर देखी रही थी कि पति ने बताया पहले यहाँ यह सब नहीं था। यह तो इसने आकर सब सुरुचिपूर्ण ढंग से व्यवस्थित किया। किसने ? मेरी नजर सामने दुकान में सफेद कुर्ता पजामा पहने खड़े व्यक्ति पर पड़ी।
वह कुल्हड़ को सिगड़ी पर सेंक कर साफ पानी से धुलकर उसमें चाय दे रहे थे। ऐसा क्यों ? तो मेरे पति बोले इससे किसी भी तरह के संक्रमण या बीमारी का खतरा नहीं रह जाता है। क्योंकि कुल्हड़ हम होंठों से लगाते हैं तो वह साफ होना चाहिए और यह कुल्लड़ ना जाने कहां से कितने हाथों से गुजर कर आता होगा। "तो यह प्लास्टिक के कप प्रयोग क्यों नहीं करते" ? मैंने पूछा। सीधी सी बात है इससे पास के गाँवों के कुम्भारों को रोजगार मिलता है और हम चाय के शौकीनों को कुल्हड़ की सोंधी चाय I
मेरे पति मेरा हाथ पकड़ कर आगे बढ़े और दुकान में खड़े व्यक्ति को बोले दादा प्रणाम। वह व्यक्ति मेरे पति को देखकर खुश हो गया। "आओ आओ भैया आज छुट्टी के दिन कैसे ? क्या भौजी से लड़ाई हो गई " ऐसा परिहास करते हुए बोला। कि तभी उसकी नज़र मुझ पर पड़ी तो झेंपते हुए बोला अरे वाह बहू जी भी आई है। आप बैठो मैं चाय भिजवाता हूँ। मुझे उस आदमी का चेहरा थोड़ा अजीब लगा। मेरे मुँह पर आए भावों को देखते हुए मेरे पति मुझे खींचकर एक तरफ ले गए I मैं अपनी धुन में बोली यह तो शायद छक्का है। मेरे पति बोले तुम इन्हें अर्धनारीश्वर या उभयलिंगी भी कह सकती थी। पर हम अपनी सहूलियत के लिए कुछ भी शब्द प्रयोग कर लेते हैं। हाँ वह है। पर क्या हमें उसकी हिम्मत की दाँद नहीं देनी चाहिए कि वह इन लोगों से अलग अपना व्यवसाय चुनने की हिम्मत कर पाया है। वैसे तो यहाँ बहुत सारे ठेले वाले हैं। पर उसमें मौजूद स्त्री ने इस जगह की दशा सवार दी है। आप उन्हें दादा क्यों कहते हो ? मैंने पूछा। क्योंकि शायद वह यही कहलवाना पसंद करते होंगे। वह हमेशा पजामा कुर्ता पहनते हैं। शायद वह चाहते हैं कि हम उन्हें एक पुरुष व्यक्तित्व के रूप में देखें।
क्या ऐसा चाहना गलत है ? क्या हमें उनकी भावनाओं का सम्मान नहीं करना चाहिए। अगर वह साड़ियाँ या अन्य परिधान पहनते तो मैं उस तरह से संबोधित करता। आज जब समाज में हर तरह के जीवन जीने वाले लोगों को मान्यता मिल रही है तो इन्हें भी हक है। यह भी अपना जीवन सामान्य लोगों की तरह सामान्य समाज के बीच में गुजारे। क्यों इन्हें इनके माँ बाप से अलग कर दिया जाता है ? भगवान (प्रकृति) की गलती की सजा इन मासूम बच्चों को क्यों भुगतनी पड़ती है। अगर इन्हें अपने माँ-बाप के साथ रहकर बड़े होने का मौका मिलता तो शायद ये डॉक्टर, आईपीएस ऑफिसर न जाने क्या-क्या बन सकते थे। समाज और परिवार को इनकी शख्सियत को स्वीकारना ही चाहिए I सबसे पहले मैं और मेरे दोस्तों ने यहाँ आना शुरू किया था। लोग भेड़चाल में विश्वास रखते हैं l परिवर्तन सब को मंजूर है बस शुरुआत कौन करें इसकी रास्ता देखते हैं। इन्होंने प्रारंभ कर दिया है। अभी इनकी देखा देखी शायद अन्य लोग भी काम करने की हिम्मत जुटा सके। बस समाज को उन्हें प्रोत्साहित करना पड़ेगा I