अपना हक़

अपना हक़

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आज कुसुम के स्वर्गवासी पति रमेश का श्राद्ध था। वह‌ इस अवसर पर गरीबों को भोजन करा कर कपड़े बांटना चाहती थी। 

रमेश को ईश्वर ने बहुत कुछ दिया था। पर धन के साथ साथ उसके पास एक उदार हृदय भी था। इसलिए ‌अपने परिवार की सुख-सुविधा का खयाल रखने के साथ वह गरीब और असहाय लोगों की मदद करता था। 

इसलिए कुसुम उसकी इस परंपरा को जीवित रखना चाहती थी। 

पति की मृत्यु के बाद उसने आंख मूंद कर अपने जेठ पर भरोसा किया था। अपने हिस्से की संपत्ति की देखरेख का जिम्मा उन्हें सौंप दिया था। आरंभ में तो सब ठीक था। वह उसे पाई पाई का हिसाब देते थे। उसकी और उसके बेटे की सभी जरूरतों का ध्यान रखते थे। लेकिन समय के साथ स्थितियां बदलने लगीं। हिसाब-किताब दिखाना तो दूर की बात थी, अब जरूरत के लिए भी कई बार कहना पड़ता था।

पर कुसुम को पूरा यकीन था कि ‌अपने भाई के ‌श्राद्ध के लिए वह फौरन पैसे निकाल कर दे देंगे।

पर आज तो हद हो गई‌ थी। कुसुम ने अपने जेठ से इच्छा जताई कि वह अपने पति का श्राद्ध करना चाहती है, तो उसकी बात सुन कर वह बोले,

 "कुसुम, तुम तो जानती हो कि इन सब में कितना खर्च हो जाता है। मुझ पर पहले ही तुम्हारा और तुम्हारे बेटे का बोझ है। मेरे लिए कठिन होगा।"

कुसुम सन्न रह गई। वह उनसे खैरात नहीं बल्कि अपना ही हक मांग रही थी। उसके जेठ ने कितनी बेशर्मी से मना कर दिया। उसे अपने पति की कही बात याद आने लगी। 

'कुसुम समय कब पलट जाए कोई नही कह सकता। मै तो कहता हूँ कि तुम बाहर की दुनिया की भी जानकारी रखो ताकि मुश्किल समय में किसी पर आश्रित ना होना पड़े।"

कुसुम के मन में अपने स्वर्गीय पति की यह सीख गूंज उठी। वह सोंच रही थी कि काश उसने अपने पति की सीख पर अमल किया होता। अपना सबकुछ अपने जेठ को ना सौंप‌ दिया होता।‌ 

लेकिन अब वह अपने पति की आत्मा की शांति के लिए अपने पैरों पर खड़ी होगी। जो उसका है उसे हासिल कर अपने पति का श्राद्ध करेगी। 


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