Turn the Page, Turn the Life | A Writer’s Battle for Survival | Help Her Win
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Prafulla Kumar Tripathi

Drama Tragedy Inspirational

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Prafulla Kumar Tripathi

Drama Tragedy Inspirational

अनुत्तरित प्रश्न

अनुत्तरित प्रश्न

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इस बार काफी लम्बे अंतराल के बाद गाँव जाना हुआ। आजादी के 73-74 वर्ष हो जाने के बावजूद गाँव जाने वाली सड़कें ठीक उसी तरह बदस्तूर बनी हुई हैं जैसे गाँव के अंदरूनी हालात ! मुझे याद है हमलोग मुख्य सड़क से उतर कर जब कच्ची सड़क पकड़ते थे तो बैलगाड़ियों की पहियों के निशान पकड़ कर हम अपने गाँव पहुँच जाया करते थे। धूल धूसरित होकर। हाँ, अब खपरैल और झोंपड़ियों की जगह पक्के मकानों ने ले ली है। अच्छे बुरे शौचालय भी बन गए हैं। नहीं तो पहले खपरैल के इक्के दुक्के मकानों के बीच झोपड़ियां ही झोपड़ियां मिलती थीं। अब भी गाँव के एक कोने की बसी हुई बस्ती में अक्सर पुरुष सदस्य नहीं रहा करते हैं क्योंकि वे रोजी रोटी की तलाश में मुम्बई, अमृतसर,लुधियाना या कोलकता जा चुके हैं और होली या दीवाली में ही उनका आना हुआ करता है। मैले - कुचैले, अधनंगे और उन्हीं पुरातन बोलचाल को अपनाए हुए बच्चे और औरतें इन झोपड़ियों के बाहर खाट लगाकर या तो एक दूसरे का जुआ बीन रही होती हैं या मजदूरी पर गई होती हैं। 

आज पूरी दुपहरिया बीत गई। अपने मकान के बरामदे में बैठा - बैठा मन इस सोते हुए गाँव से ऊब सा जा रहा है। लेकिन दुपहरिया का यह सन्नाटा क्यों था यह जानने समझने की इच्छा मन के किसी प्रांतर में बनी हुई थी। दूर जाते हुए दिखाई दे गए सोहन हरिजन। पुकार लगाते ही उन्होंने नज़दीक आकर पांयलाग किया। 

'' क्या बात है सोहन, गाँव में अजीब सन्नाटा सा क्यों छाया हुआ है ?''मैंने पूछा।

''अरे बबुआ ! सब पचन अपने - अपने खरिहाने में लागल गेंहू के ढेर के दउरी करा के घरे ले अईले के फेर में जुटल बाडन। बादर बरखा से पहिले खेते के अनाज कउनो तरह गहरे आ जाय यही फेरे में सभे लागल बा।'' सोहन ने अपनी आंचलिक बोली भोजपुरी में उत्तर दिया।

और फिर थोड़ी ही देर में मैंने गाँव के बारे में सारी जानकारी सोहन से जुटा ली।जैसे कौन कौन नहीं रहा, कहाँ किस बात पर लाठी उठी और सर फुटौउवल हुआ, किसने फौजदारी की और हाँ किसकी लड़की किसके साथ गाँव से भाग गई ? 

 गाँव के सबसे सम्पन्न आदमी माने जाते थे नारद पाण्डेय। दो तीन गाँव में कुल मिलाकर लगभग पचास एकड़ खेत के वे मालिकान थे। वे गाँव के ज़मींदार थे लेकिन अब तो ज़मींदारी रही नहीं फिर भी उनका अभी भी वही जमीन्दाराना रोब - ताब चला आ रहा था। सोहन हरिजन से हुई बातचीत में जब मुझे यह पता चला कि अचानक नारद पाण्डेय सब खेती बारी, घर गृहस्थी छोड़ कर काशीवास करने चले गए तो मैं किंचित अवाक रह गया। अभी तो उनकी उम्र साठ के आसपास ही हो रही थी। आखिर वे कौन से कारण उत्पन्न हो उठे जिससे विवश होकर नारद पाण्डेय ने गाँव छोड़ दिया ?क्या होगा उनकी इस लम्बी चौड़ी जायदाद का ? जहाज जैसे उनके मकान में अब सन्नाटा सांय सांय कर रहा था। सबसे बड़ी बात यह कि उनके कामकाज में व्यस्त रहने वाली वह लम्बी चौड़ी फ़ौज अब कहाँ जायेगी जो पीढी दर पीढी उनके यहाँ के मुलाजिम थे ? 

उत्सुकतावश मेरे कदम नारद पाण्डेय के घर की ओर बढ़ गए। किसी समय उनके घर में अन्दर से बाहर तक तिल भर स्थान भी नहीं खाली दिखाई देता था। आज इस सन्नाटे को देखकर मैं अपने आप से पूछ रहा था कि मैं कहीं किसी और के घर तो नहीं आ गया हूँ ? नहीं नहीं, यही तो है नारद पाण्डेय का घर। बाहर बरामदे में दो - दो चौकियां और लम्बी बेंच पर धूल पड़ी हुई है।कहाँ चले गए सब लोग ? हमेशा अपनी ड्यूटी बजाते रहने वाला दुअरहा देवता, हमेशा सुर्ती ठोंक ठोंक कर देते रहने वाला बिसन कंहार, पाण्डेय बाबा के सिरवार मंगल ये सब हैं कहाँ ? इस सन्नाटे को तोड़ने के लिए मेरी उत्सुकताएँ हल्की लगीं और मैं निराश मन से अपने घर वापस आ गया।

शाम को ढेर सारे लोग आते जाते रहे। लेकिन नारद पाण्डेय ही मेरे लिए कौतूहल के विषय बने रहे। आखिरकार उनकी पट्टीदारी के लोगों से उनके बारे में मुझे भरपूर जानकारी मिल ही गई। पता चला धन सम्पत्ति से ऊब कर जीवन के शेष दिन काशी में गंगा की कलकल निनाद करती धारा के सामीप्य में बिताने का उद्देश्य लेकर नारद पाण्डेय ने मोह - माया,धन- वैभव का त्याग कर दिया था।अपने नौकरों चाकरों को उन्होंने समुचित खेत, अनाज दिया और खेती-गृहस्थी की सारी ज़िम्मेदारी अपने एकमात्र पुत्र रामजी पाण्डेय को सौंप कर पत्नी और एक विश्वासपात्र नौकर के साथ चल दिए थे। रामजी पाण्डेय ने गाँव में जन्म तो लिया था लेकिन अपनी पढाई आदि के सिलसले में और अब नौकरी के कारण हमेशा बाहर ही रहे। फिर कैसे वे संभाल पायेंगे वे इतनी बड़ी ज़िम्मेदारी यह सबके लिए यक्ष प्रश्न था !

चार -पांच दिन के प्रवास के बाद मैं वापस आ गया। मुझे न जाने क्यों बार- बार नारद पाण्डेय का प्रकरण याद आता रहा। इस बीच गाँव से कुछ और भी सूचनाएं आती रहीं लेकिन उनका मेरे लिए कोई मतलब नहीं था। लेकिन इस प्रकरण के कुछ ही महीनों बाद मेरा फिर गाँव जाना हुआ। इस बार भी मेरे कदम नारद पाण्डेय के घर की ओर चल पड़े।नारद पाण्डेय का वह घर अब देखभाल के अभाव में जगह जगह गिरता जा रहा था।आगे के लम्बे बरामदे का एक छोर गिर चुका था। क्या इस घर की देखभाल करने वाला कोई नहीं है ? पता चला कि न केवल मकान की दीवारें और खपरैल ही गिर रहे हैं बल्कि मेरे मन के ढेर सारे भ्रम भी गिर पड रहे हैं !

 नारद पाण्डेय जमींदारी युग के शिरोमणि ज़मींदार थे। कम ही खेत खलिहान जाया करते थे फिर भी उनका आतंक, उनका रोब-दाब इतना था कि उनके खेत का एक दाना अनाज इधर से उधर नहीं हो पाता था। पूरी ज़िंदगी शान ओ शौकत से गुजार चुकने के बाद इधर उनके दिन कुछ खस्ताहाल हो चले थे। खेत बेंच बेंच कर वे गुजारा कर रहे थे। गाँव में खेती के लिए मजदूर अब मिलते नहीं थे, बंध कर कोई हरवाह काम करना नहीं चाहते थे। बैल आदि पर खर्चे अधिक आने लगे थे। उन्नत तकनीक की खेती कराने की चाहत तो थी लेकिन उम्र दराज होने के नाते वे किसी तरह का रिस्क नहीं लेना चाहते थे। ऐसे में जो थोड़ा बहुत अनाज होता था उसका भरपूर मूल्य भी नहीं मिल पाता था।उनके लडके की टोका टोकी और डिमांड बढ़ती जा रही थी।वह अक्सर उनसे खेत को बेंचने के सवाल पर अप्रसन्न भी रहने लगा था।''आपने वहां का खेत क्यों बेंच दिया ?'',  ''आपने इतने खेत गिरवी रख दिए हैं और इतने तो बेंच दिए हैं आखिर उन पैसों का क्या किया आपने ? '' इन जैसे सवालों का जबाव देते - देते वे तंग आ चुके थे।इसी मन:स्थिति में एक दिन उन्होंने ठान लिया था कि अब सारी जायदाद बेटे को सौंप दूँगा और अपने लिए उससे हर महीने एक निश्चित रकम काशी मंगवाया करूंगा। आखिर वह भी तो समझे कि खेती करना, जायदाद सम्भालाना कितना कठिन होता है ? 

 नारद पाण्डेय अब दीन दुनिया से बेखबर होकर निश्चय ही राम नाम में राम गए होंगे ऎसी अपनी धारणा थी। कैसा लगता होगा इस मोह माया से भरपूर संसार से यकायक दूर हो जाना क्या यही है सन्यास आश्रम ? अगर उन्होंने अपनी सारी ज़रूरतों को सीमित कर लिया है, भोग विलास से दूर हो गए हैं तो निश्चित रूप से उनका यह कार्य प्रसंशनीय है। नारद पाण्डेय के लिए मेरे मन में अगाध श्रद्धा उत्पन्न हो चली। उनके एकमात्र बेटे पर भी कि वह श्रवणकुमार बनाकर उनके आर्थिक हित को ध्यान में रख कर उन्हें हर महीने कुछ अनाज पानी और रूपये भेजने लगे थे। लेकिन पंख लगाकर मन का उड़ जाना और ज़िंदगी की तल्ख़ सच्चाइयों से सामना करना दोनों दो बातें हैं। यहाँ रहकर हम सोच लेते हैं कि फलां इंसान बहुत सुखी है। लेकिन उसका यह सुख किन मूल्यों पर टिका है इसका एहसास तो सिर्फ उसे ही हो सकता है ! शायद नारद पाण्डेय भी काशीवास का निर्णय लेकर अब पछता रहे थे क्योंकि जीवन के उत्तरार्ध में पहुँच कर जिस कड़वे सत्य का वह सामना कर रहे थे वह उन्हें बेचैन किये जा रहा था।

नारद पाण्डेय के युवा नाती से हुई मुलाक़ात ने मुझे चौका दिया। मेरे लडके का दोस्त है वह। औपचारिकता और उत्सुकतावश मैंने उससे नारद पाण्डेय का कुशल क्षेम क्या पूछा कि वह कुछ उद्विग्न सा हो उठा।बोला ;

"ठीक ही हैं दादा जी।अब अगले महीने से दस हज़ार रूपये भेजने की मांग किये हैं। अब अंकल आप ही बताइये कि काशी जो आदमी मरने के लिए गया हो उसे साल भर का अनाज तेल मिल रहा हो तो ऊपर से इतने सारे रूपये की क्या ज़रूरत है ? क्या वे जीवन का सुख वैभव भोगने काशी गए हैं ? '' 

निरुत्तर सा होकर रह गया मैं। मुझे उनके युवा नाती पर क्रोध भी आया लेकिन मैं यह जानता था कि वह वही बोल रहा है जो घर में सुनता होगा। कच्चे मन से बिना तैयारी किये यकायक काशीवास करने का कुछ न कुछ तो प्रायश्चित उन्हें करना ही होगा। जीवन की सारी सुख सुविधाएं जब एक एक कर छोड़ने का समय हो तब इच्छाओं की लहरों पर सवार होने से बचना होगा।अपने मन के एकांत को उन सभी से बचाना होगा।आखिर एक गृहस्थ और एक वानप्रस्थ में कुछ तो अंतर होना चाहिए ? 

 अभी मैं अपने उधेड़बुन की दुनिया में विचर ही रहा था कि उस लडके ने अपने पाकेट से एक कागज़ निकाल कर मेरे हाथ में पकड़ा दिया। यह नारद पाण्डेय का उस लडके के नाम पत्र था। उस पत्र में ढेर सारी बातों के बीच की इन लाइनों ने मुझे चौंका दिया था

'' बेटा, इस संसार में जिसके पास धन है वही पुरुषार्थी है, वह बुद्धिमान है तथा वही लोकप्रिय भी है। यह ध्रुव सत्य है कि धनोपार्जन अवश्य क्या जाय अस्तु इतना कहने का मेरा अभिप्राय यह है कि जहां तक हो सके जीवन में द्रव्य एकत्रित करो,बैंक बैलेंस करो। मैं चाहता हूँ कि कम से कम एक करोड़ रूपये बैंक में जमा करो। इसके अतिरिक्त पेंशन जब मिलेगी तभी तुम सम्मानजनक जीवन जी सकोगे। मैं देख रहा हूँ ना कि जिनके पास द्रव्य नहीं है उनकी क्या दुर्दशा हो रही है। ईश्वर तुम्हें इस कार्य में सफलता दें ! ''

विचलित मन अभी उहापोह की स्थिति में था कि नारद पाण्डेय के युवा नाती की आवाज़ गूँज उठी ;

''बोलिए ना अंकल, जीवन की सार्थकता क्या जीवन में धनपशु बनकर रह जाना ही है ?'' बोलिए, बोलिए ना अंकल ? '' अब नारद पाण्डेय के युवा नाती के इस प्रश्न का मेरे पास कोई उत्तर नहीं है।  उत्तर हो भी क्या सकता है, फिलहाल मुझे नहीं पता है। क्या आप इसका उत्तर दे सकेंगे ?


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