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Abhilasha Chauhan

Drama

3  

Abhilasha Chauhan

Drama

अंतर्व्यथा

अंतर्व्यथा

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घर में साफ-सफाई का काम जोरों पर था आखिर दीवाली का त्योहार आने वाला था। तभी पुराने संदूक में कपड़े की तह के नीचे अंतर्देशीय लिफाफे झलक उठे। आशा ने उन लिफाफों को निकाला और पढ़ते-पढ़ते स्मृतियों में डूब गई। ये पत्र उसके द्वारा ही लिखे गए थे, लेकिन कभी पोस्ट नहीं किए गए।

कितना कठिन था वह समय , उसकी जिंदगी में , वे दिन चलचित्र की भांति आंखों के सामने आ गए। सन् १९८४ में जब उसका ब्याह हुआ तो मात्र अठारह साल की थी वो, एक भरा-पूरा कट्टरपंथी परिवार , जिसमें वह बहू बनकर आई। विदा होते समय सभी अनुभवी महिलाओं ने समझाया था कि -बेटा!सबकी खूब सेवा करना , किसी को शिकायत का मौका न देना और न ही लड़ाई-झगड़ा करना। पापा भी छूटते ही बोले-और हां हमारी इज्जत अब तुम्हारे हाथ है, कभी लड़-झगड़कर यहां मत आना। इन सीखों को गांठ में बांधकर चली आई थी अजनबियों के बीच। सासू जी बहुत ही कड़क मिजाज थी। और नाराज भी क्योंकि वे अपने मैके से अपने बेटे की बहू लाना चाहती थीं, खैर वह बहुत लंबी दास्तान है।

आशा मिली सीखों के आधार पर सभी की जी -जान से सेवा कर रही थी। सासू जी फिर भी अप्रसन्न ही रहती। घर के सभी मर्दो के समक्ष निकलना वर्जित था। घूंघट में पूरा मुंह छिपा रहना जरूरी था। एक दिन पति के कुछ दोस्त घर आए। उनके चाय-नाश्ते का बंदोबस्त करती आशा के मुंह पर घूंघट नहीं था, यह सब सासूजी देख रही थी। उनके जाने के बाद गालियों की बौछार से सासूजी ने घर सिर पर उठा लिया। गर्म शीशे के समान उसके कानों में उनके शब्द उड़ेले जा रहे थे, वह निरपराध सी अपने अपराध को समझने की चेष्टा कर रही थी और जब समझ आया तो ऐसा लगा कि बस जमीन फट जाए और वह उसमें समा जाए। रात को रोते हुए उसने पति को ये बात बताई तो वे अविश्वास भरी नजरों से देखते हुए बोले-परिवार से अलग करना चाह रही हो, ऐसा पहले तो कभी नहीं हुआ। फिर तो आए दिन की बात हो गई, रोज उसका मानसिक बलात्कार होता। छटपटाती मछली की तरह उसने अपनी पीड़ा को एक पत्र में कैद किया वह बताना चाह रही थी , अपने माता-पिता को , कि उसकी स्थिति इस समय एक वेश्या जैसी हो गई है। किसी के साथ कभी भी उसका संबंध जोड़ने में सासूजी एक कदम पीछे न रहती। पत्र लिखा पर पोस्ट करने की हिम्मत न हुई। पापा के कहे शब्द याद आ गए। फोन तो घर में था नहीं और मोबाइल आए नहीं थे। हर बार वह पत्र लिखती और फिर सहेजकर रख देती।

अति स‌र्वत्र वर्जयेत "यही सोचकर उसने अगला पत्र बड़ी ननद को लिखा, वे पढ़ी-लिखी समझदार थीं , ऐसा उसने सोचा और वे अपनी मां को समझा पाएगी। आखिर मां बेटी की बात को ध्यान से सुनती-समझती है।

लेकिन वह पत्र भी पोस्ट नहीं किया और सहेज कर रख दिया। मन ने कहा कि वह तेरी बात सुनेंगी या अपनी मां की।

जिंदगी दोजख बन चुकी थी। जैसे सासूजी चाहती थीं , वैसे ही रहने के चक्कर में उसकी अंतरात्मा धीरे-धीरे मर रही थी। समय बीता, पति की आंखों से भी पर्दा उठने लगा। उन्होंने कहा तो कुछ नहीं, क्योंकि वहम का कोई इलाज इस संसार में नहीं है। उसे ही समझाया कि इन व्यर्थ की बातों पर ध्यान देने से अच्छा है कि तुम अपनी छूटी पढ़ाई पूरी करो। पति का साथ मिला तो जिंदगी आसान लगने लगी। मन का गुबार भी निकलने लगा। काफी सालों बाद जब ननद के घर में यही कहानी दुबारा घटती देखी तो समझ आया कि यदि उसने अपने लिखे वे पत्र पोस्ट कर दिए होते तो कितना बवाल मचता। उसे अपनी समझदारी पर नाज हुआ कि उसने इन पढ़े-लिखे गंवारों से मदद नहीं मांगी। वर्ना जिंदगी और भी जहन्नुम हो जाती।

जब ये अपनी बहू के साथ वही व्यवहार कर रहीं हैं तो मेरे साथ क्या न्याय करती। आज उन पत्रों ने आशा के समक्ष अतीत को ला खड़ा किया था। कितने वहम और बंधनों में गुजरी थी उसकी जिंदगी, ये पत्र साक्षी है उसके बीते दिनों के, ये पत्र मित्र हैं उसके, जिन्होंने उसकी पीड़ा को पिया था, जिनमें अपनी अंतर्व्यथा लिखकर उसने दृढनिश्चय के साथ दुर्दिनों को सहने की शक्ति पाई थी।

आज भी ये पत्र उसने सहेज रखें हैं, ये उसे प्रेरणा देते हैं कि बहू भी बेटी ही होती है। उसके या किसी के चरित्र पर उंगली उठाने का अधिकार किसी के पास नहीं है। दर्द व दुख के साक्षी पत्रों को पढ़ते हुए आशा की आंखों से आंसू बह रहे थे। अगर उस समय उसने ये पत्र न लिखें होते तो शायद आत्महत्या जैसा घृणित कदम उठा चुकी होती। बड़े सहेजकर उसने उन पत्रों को फिर संदूक में जमा दिया। बहू पूछ रही थी-मम्मी ऐसा क्या है इनमें, हर साल निकालती हो , पढ़ती हो, रोती हो और फिर सहेजकर रख देती हो। 'मेरे मित्र हैं ये 'बेटा तुम नहीं समझोगी, आशा मुस्कराई।


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