अंतिम पड़ाव

अंतिम पड़ाव

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सारी तैयारी कर ली है मैंने। फाँसी का फंदा, नींद की गोलियाँ और बोतल में बची शराब का एक घूँट। बस आख़िरी पत्र में अपने पिता को अपनी और अपनी माँ की बर्बादी के बारे में लिखकर सदा के लिए सो जाना चाहता हूँ। 


शराब का आखिरी घूँट पी कर मैं पत्र लिखने बैठा कि झपकी सी आ गयी। नींद में ऐसा महसूस हुआ कि माँ मेरे पास खड़ी हैं। उन्होंने मेरे सिर पर हाथ रखा और मेरा चेहरे पर अपना हाथ फिराते हुए कहा-"बहुत समझदार हो गये हो मेरे बेटे रोहित, पर यह जो तुम करने जा रहे हो यह जीवन से मुक्ति नहीं है। ऐसी ग़लती मैं भी कर चुकी हूँ और अभी तक मुक्त नहीं हो पायी हूँ। मेरी आत्मा जीवन और मृत्यु के बीच में  झूल रही है, अंतहीन पीड़ा झेल रही है। जब तक मैं इस संसार में मिली अपनी आयु को पूरा नहीं कर लूँगी, इसी तरह तकलीफें भोगती रहूँगी। अपने कष्टों से मुक्ति पानी है तो नशा-मुक्ति-केंद्र जाओ और अपना इलाज करवाओ"


मेरे सिर पर अपना हाथ फेरते हुए माँ अंतर्ध्यान हो गयीं। 

अचानक मैं नींद से जागा, समझ नहीं पाया कि यह सच था या स्वप्न। 

मेरे कदम  नशा-मुक्ति-केंद्र की ओर बढ़ चले। 



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