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Adyanand Jha

Romance Tragedy

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Adyanand Jha

Romance Tragedy

अनसुने शब्द

अनसुने शब्द

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दो वर्ष बीत चुके है स्वर्णिम दिनों को बीते हुए,कहने का तात्पर्य है कॉलेज छोड़े हुए,अरे मैंने तो आपको अपना परिचय ही नहीं दिया, मैं हूं विक्की उर्फ विकास दीक्षित एक सॉफ्टवेयर इंजीनियर फिलहाल यही मेरी पहचान है। एक मल्टीनेशनल मे अच्छी तनख्वाह का नौकर हूं वो भी पुणे जैसे शहर में और यही मेरी काबिलियत का आधुनिक पैमाना है।

 मुझे लगता है भगवान गणपति ने जितनी प्राकृतिक सुन्दरता बख्शी है उतना ही प्राकृतिक श्रोतो का अभाव भी दिया है।अब देखिए ना बारिश के मौसम में आप मुंबई,नासिक,सोलापुर, कोल्हापुर किसी भी ओर निकाल जाइए आपको हरे भरे पहाड़, झरने ही झरने दिखेंगे पर फिर भी पानी दो टाइम ही आता है,कुछ गिने चुने फलो और फसलों के अलावा कुछ भी नहीं उपजता यहां। खैर पुणे ,जहां दिन में प्रकृति सुंदरता बिखेरती हैं वहीं रात आधुनिक विलासिता की बाहों में अटखेलियां करता प्रतीत होता है।

इस भीड़ भरे शहर मे मेरा अपना कोई है तो मेरी बसन्ती अरे वो रामपुर गांव वाली नहीं बल्कि मेरा यमहा एंटाइसर काली कलूटी 100 सीसी ऑटो स्टार्ट। शायद कॉलेज की खुमारी कह लीजिए या फिर इस जिंदगी के नए अध्याय से सामंजस्य का अभाव जिंदगी बड़ी बोर चल रहीं है। यूँ तो यहां मन लगने के लिए बहुत कुछ है पर मेरा मानना है, कि जब आप खुद के लिए काम करना बंद कर देते है,या यूँ कह ले की अपने लिए जीना छोड़ देते हैं तो समय बोझ बन जाता है। यहां भी ऑफिस में कार्य, लक्ष्य प्राप्ति की ललक सामाजिक ज्यादा व्यक्तिगत कम है। खैर......

सप्ताह का पहला दिन सोमवार "एक अकेला इस शहर में "से शुरु हो कर शाम होते होते "ओ हम दम सोनियो रे"पर खत्म हो जाती है, कमोवेश यही हाल बाकी के चार दिनों का भी होता है। फ़िर शुरु होता है सप्ताहांत शनिवार और रविवार जब दिल जगजीत सिंह बनकर "दिल हैं तो धड़कने का बहाना कोई ढूंढ़े" गाने लगता है। ऑफिस में मेरा सबसे पसंदीदा टाइमपास स्मोकिंग ज़ोन मे जाना हैं हालाकि मुझे व्यसन नहीं पर यहां आधुनिकता के नाम पर लड़कियों द्वारा अपनी संस्कृति को धुएं में उड़ते देखना अचरज भरा होता था मेरे लिए, आज भी मै अपने इसी कार्य में था कि मोबाइल पर आए नोटिफिकेशन ने मेरा ध्यान खींच लिया, देखने पर पता चला कि अमित का फ्रेंड रिक्वेस्ट आया था फेसबुक पर। मै रोमांच से भर उठा और भाग कर अपने डेस्क पर पहुंचा,फटाफट फेसबुक खोला और रिक्वेस्ट स्वीकार कर उसके उत्तर की प्रतीक्षा करने लगा। ओ हो इस रोमांच मे मै अमित के बारे में बताना ही भूल गया,अमित और मैंने साथ मे ही इंजीनियरिंग पूरी की थी ,हमने साथ में कॉलेज में 3-3.5 साल मस्तीखोरी की थी। मै जितना अंतर्मुखी और नियमों का पाबंद था वो उतना ही बहिर्मुखी, दिलफेंक, खुशमिजाज और बातूनी था विशेषकर लड़कियों के साथ। यूँ तो हमारे कक्षा मे लड़कियां कम थी लेकिन विश्वविद्यालय प्रांगण में कोई कमी भी नहीं थी| इस बात का पूरा फायदा भाई ने उठाया हुआ था ,उसकी अल्पकालिक प्रेम कहानियां हमारे समय व्यतीत करने का अच्छा जरिया थाी। सामने स्क्रीन पर अमित का मैसेज आया , फिर बातो का सिलसिला प्रारंभ हो गया जो आधुनिक संचार माध्यमों से होते हुए आरम्भिक संचार माध्यम पर केंद्रित हो गया| हम फोन पर अक्सर बाते करने लगे, तभी मुझे पता चला कि वो भी वही है पुणे मे, उसने हमारे ही कॉलेज की दीप्ति से शादी कर ली है। इस तरह ही कुछ मित्र और मित्राणी के आस - पास होने की जानकारी मिली , हम सब व्हाट्सअप के जरिए इकट्ठे हुए, अगले सप्ताहांत पर अमित के घर पर मिलने का प्लान बनाया गया। अब अचानक से जिंदगी में बोरियत कि जगह रोमांच ने ले ली है,दिन भर ऑफिस और रात को दोस्तो के साथ बाते यूँ लग रहा कि हम फिर से कॉलेज पहुंच गए थे।

खैर शनिवार भी आ ही गया मै 12 बजे ही तैयार हो गया था,जबकि हमे मिलना तो 5 बजे था। हालांकि हिंजेवरी से कत्रज बहुत दूर नहीं था फिर भी आवेग के प्रवाह में मै 2 बजे ही अपने फ्लैट से नीचे आ गया और अपनी बसन्ती को साफ करके स्टार्ट किया पर ये क्या आज बसन्ती लगता है खुश नहीं है स्टार्ट ही नहीं हो रही शायद इसे भी इल्म हो गया था कि आज इसके अलावा भी मुझे जानने वाला इस शहर मे मिलने वाला है।अचानक फोन की घंटी बजी मैंने फोन उठाया तो अमित ने कहा आते हुए रवि को भी स्वार गेट से साथ लेते आना 4 बजे तक वो भी वहां पहुंच जाएगा। मैंने समय देखा 3 बजने वाले थे मै स्वार गेट के लिए निकल पड़ा। वहां से रवि को पिक कर के सीधा अमित के भेजे हुए पते पर पहुंचा । अच्छी सोसायटी थी गेट पर औपचारिकता पूरी कर के हम उसके फ्लैट पर पहुंचे और घंटी बजाई और जैसे ही दरवाजा खुला सामने संजना को देख आशचर्य और रोमांच से मेरी आंखे खुली रह गई ,मतलब ये एक अनापेक्षित सुखद संयोग था। मै एक पल के लिए ठिठक सा गया लगा जैसे समय रुक गया "दो दिल मिल रहे हैं मगर ...."गाना बजने लगा था तभी रवि ने कहा "प्रभु आगे भी चलबो कि यही तक हो" सामने से अमित,दीप्ति,अदिति आते हुए दिखे जिनके चेहरे पर शरारत भरी मुस्कान थी, जो इस घटना के सृजन को बयान कर रही थी पर एक मिनट मुझे गाना अब भी सुनाई दे रहा था 

तभी अमित ने अपनी मोबाइल निकाल कर गाना बंद किया और बोला "अबे अंदर भी आओगे" 

मै बोल पड़ा "कमीनो सुधरोगे नहीं" 

सब हसने लगे, शायद जिंदगी दोस्तो की इसी शरारत और कमीनेपन को तरस रही थी।

इन बातो में मै संजना के बारे में बताना भूल ही गया संजना हमारे ही विश्वविद्यालय मे थी और दीप्ति की सहपाठी थी दोनो हमेशा साथ मे रहती थी। थोड़ा सा अंतर्मुखी स्वभाव की थी पर उसकी बड़ी - बड़ी आंखे बहुत कुछ बोल जाती थी,उसके घुंघराले बाल किसी को भी बांधने के लिए काफी थे,उसका सहज स्वभाव और मोहक मुस्कान किसी को भी असहज करने के लिए पर्याप्त थे। हमारी मुलाकात वार्तालाप अक्सर अमित और दीप्ति के मुलाकात पर निर्भर थी ,जब वो दोनो एकांत वार्तालाप को निकल जाते तो हमारे पास एकांत समय हो जाता। मुझे याद तो नहीं कि सिवाय जन्मदिन के विशेष उत्सव के अलावा हमने एक दूसरे को कभी आमंत्रित किया हो। हमारे दोस्तो के बीच अक्सर मेरे और संजना के रिश्ते को ले कर बाते होती रहती थी इनके हिसाब से हम दोनों के बीच प्रेम की गंगा बहती थी पर मुझे कभी उसका इस बात पर यकीन दिखा नहीं ।जो मेरा अनुमान था वो ये कि दोनों उलझन मे हैं कि

       " ना उसने कभी इनकार किया 

         ना मैने कभी इज़हार किया

       बस आंखो ने आंखो से जो कुछ कहा 

         उसे दोस्तो ने कैसे सुना जो

         ना मैने कहा ना उसने कहा "

 अलबत्ता हम अच्छे दोस्त थे इस पर ना उसे ना मुझे कोई संशय था। जितने में हम और रवि फ्रेश हुए उतने में चाय और पकौड़े भी बालकनी मे तैयार हो चुके थे।

मैंने पहुंचते ही कहा "भाई पुणे की बारिश ,चाय पकौड़े और दोस्तो का साथ और क्या चाहिए जिंदगी मे" 

बाकी दोस्तो ने भी हां मे हां मिलाई फिर सुरु हुई चाय पे अंतहीन वही पुरानी बातो का सिलसिला। शाम के 6:30 हो चले थे और बारिश भी बंद हो चुकी थी अब रात के खाने की मेन्यू पर चर्चा हो रही थी । मेन्यू के निर्णय होते ही प्याज ,चाकू और थाली हम लड़को की ओर बढ़ा दिए गए और हम भी इसको अपना जन्मसिद्ध कर्तव्य समझ जुट गए। 

प्याज की निर्मम कटाई जारी थी कि अचानक अमित ने आवाज लगाई "दीप्ति इधर आओ भाई" ,

दीप्ति और संजना किचन से बाहर आए तो अमित ने कहा "अरे भाई संजना को यही छोड़ दो देखो कैसे विक्की बेचारा रो रहा है",

मै कुछ समझता इस से पहले सब हँसने लगे सिवाय मेरे और संजना के,संजना शर्म से सनी खड़ी थी और मै हाथ की चाकू लिए अमित के पीछे भागा 

"अबे रुक तू भागता कहां है,"

अमित दीप्ति के पीछे किचेन मे छिप गया

 मैंने फिर कहां "भाई बाहर आजा क्यू बीबी के सामने भी गालियां खायेगा और पिटेगा"

 फिर भाई ने दिल छू लेने वाली बात कही "ओए काक्के बीबी तो बाद मे आई दोस्त तो तू पुराना है।"

ये कहते हुए वो किचेन कि गेट की और बढ़ चला 

जैसे ही गेट से निकला फिर बोला "भाई अगर दीदार हो गए हो तो आ जाओ प्याज काट ले"

 सब फिर से हसने लगे और मै फिर से अमित की और लपका।

कभी कभी दोस्तो का यही कमीनापन आपकी जिंदगी में सबसे बड़ा रोमांच पैदा कर देता है,और जब आप उनके बिना होते है तो यही पल खलता हैं।

 खैर खाना बन चुका था हम सब खाने को घेर कर बैठ चुके थे और व्यंजन गिन रहे थे दीप्ति और संजना से चँद समय मे बहुत कुछ बना लिया था। कॉलेज के समय भी संजना ने कई बार ये कहा था कि उसे खाना बनाना बहुत पसंद है और वो बहुत अच्छा खाना बनाती हैं, लेकिन कहीं वैसा संयोग नहीं हुआ बाकी दीप्ति का मुझे पता नहीं |

 हम तीन मै रवि और अमित बनाना तो नहीं जानते थे लेकिन खाना खूब जानते थे रही बात अदिति की तो वो शरीर से तो निश्चय ही लड़की थी पर आचरण और दिमाग से पूरी तरह लड़का। लड़को के जैसे बाल,बाइक की शौकीन,गालियों की क्वीन तभी इसे कॉलेज में लड़के लेडी डॉन कहते थे। आज भी जब दीप्ति और संजना खाना बना रही थी तब वो हमारे साथ पत्ते खेल रही थी जो हमारे कॉलेज के समय का सर्वोत्तम टाइमपास था।

 खाना सही में लाजबाव था मैंने कहां दीप्ति खाना बहुत ही अच्छा बना है बिल्कुल घर जैसा स्वाद है तरस गया था पुणे मे इस खाने को, दीप्ति कुछ बोले उससे पहले रवि बोला "भाई अब कोई फायदा नहीं उसकी तारीफ का, हां जिसके लिए ये सब कह रहा है उसे सीधा भी बोल सकता था।" सभी के चेहरे पर हसी आ गई और रवि के चेहरे पर मेरी टांग खींचने का आनंद दिख रहा था।

 खाना खाने के बाद हम पत्ते खेलने का प्लान बना रहे थे कि तभी रवि ने कहां चलो पान खाने चलते है,अदिति ने फट से हमी भर दी रात के 10:30 -11 बजे थे पर पुणे मे तो इस समय घूमना आम हैं। हम तैयार हो कर नीचे आए ,रवि ने कहां भाई बाइक से चलते हैं तो सब ने हामी भर दी, पर समस्या ये थी कि बाइक दो ही थी और हम कुल 6 लोग ट्रिप्लिंग करना मतलब चलन को न्योता देना था, इन सब विचार विमर्श के बीच अमित बोला अरे इतना क्या सोचना हम चलते हैं ,विक्की और संजना को यही रहने दो इनके लिए लेते आएंगे बस 10-15 मिनट की बात है| तब तक ये पार्क में बैठ लेंगे मै कुछ बोलता इस से पहले रवि ने आंख दबा कर इशारा किया और मै चुप हो गया ,संजना ने भी हामी भर दी। मै मन ही मन दोनों कमीनों को इनके इस एकांत के लिए बनायी योजना के लिए धन्यवाद दे रहा था और शायद वो भी।

 उनके निकलते ही हम सोसायटी के मध्य बने छोटे पर खूबसूरत पार्क की और चल पड़े। शाम को हुयी बारिश का असर पत्तियों पर खूब दिख रहा था, बादलो से अटखेलियां करते चांद कि हल्की पीली रौशनी इस उपवन के प्राकृतिक सौंदर्य को कई गुना बढ़ा रहा था। हम दोनों इस उपवन मे एक बेंच पर जा बैठे और फिर औपचारिक बाते भी शुरु हुई । थोड़ी देर इधर उधर की बाते होती रही फिर मैने पूछा "शादी नहीं किया अबतक क्यूँ?" वो बोली कि कॉलेज के बाद वो एमबीए करने लगी फिर एक इंटर्नशिप के सिलसिले में अभी वो मुंबई किसी रिश्तेदार के यहां रह रही है और इस इंटर्नशिप के बाद ही इस बारे में सोचेंगे। फिर उसने पूछा कि तुम ने भी अब तक शादी नहीं की मै कुछ ज़बाब दे पता कि उस से पहले फिर से जगजीत सिंह""तू अपने दिल के जवां धड़कनों को गिन के बता""मुझे मेरे पास आते हुए प्रतीत होने लगा मै ये सोच रहा था कि माना भगवान जी आज मेहरबान है बारिश में धुले हुए नव कोपलित पेड़ों की आभा,मधुर चांदनी रात ,संजना का साथ और साथ में बैकग्राउंड म्यूजिक भी। मैंने पलट के देखा कि कहीं ये अमित या रवि की शरारत तो नहीं पर देखा कि कोई बुजुर्ग अपने भ्रमण के दौरान एफएम पर जगजीत सिंह का आनंद ले रहे थे। मै जैसे ही पलटा उसके चेहरे पर तैरती हुई मुस्कान स्पष्ट दृष्टिगोचर हो रही थी, मेरा मन कह रहा था कि मै भी उस से जगजीत सिंह वाला सवाल पूछ ही डालू कि तभी वो चिर परिचित आवाज वाली रुकावट आ पड़ी दीप्ति और गैंग वापस आ चुके थे और दीप्ति ने आते ही आवाज लगई संजना आओ,मैंने पलट कर उस ओर देखा और सोचा कि आज जो भी हो मै बता ही दूंगा और उधर देखते देखते ही बोला की शायद तुम्हारे हां या ना के इंतज़ार में समय गुजरता रहा और मुझे पता भी नहीं चला तो अब तुम्हारा ज़बाब क्या है?तभी संजना कि आवाज आयी "अरे आओ भी अब तक वही हो" मैंने पलट कर देखा तो वो कुछ दूर खड़ी मुझे बुला रही थी |

शायद वो मेरे सवाल करने से पहले ही जा चुकी थी। मैं अपने इस अधूरे शब्द के अनसुने होने का दंश छिपाए हमेशा कि तरह मुस्कुराता हुआ उसकी ओर चल पड़ा ।यही हमारे इस अधूरे कहानी के अनसुने शब्द का फलसफा है, विश्वविद्यालय में भी जब कभी हम किसी मुकाम के करीब होते कि दीप्ति किसी रुकावट की तरह आती और उसे साथ ले कर चली जाती और मेरा आशियाना बिना बसे ही उजड़ जाता मै तब भी कुछ ना कह पाता और आज भी....।


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