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Adyanand Jha

Romance

4  

Adyanand Jha

Romance

पूनम का चांद

पूनम का चांद

5 mins
389

प्रेम क्या हैं? क्या है प्रेम  समर्पण त्याग पाने की चाहत एक दूसरे के खुशी की चाहत यह तो शायद ही कोई विषय विशेषज्ञ बता पाये। बात उन दिनों की हैं जब मुझे प्रेम का सामान्य ज्ञान तो था पर गूढ़ता का आभास नहीं था। सहशिक्षा होने के बावजूद वर्ग कन्या विहीन था पिछले दो वर्षों से फिर एक दिन वो खबर भी आयी जिसने वर्ग के छा‌त्रों को रोमांचित कर दिया अगले ही दिन दो वर्षों की आस ने पदार्पण किया।

उम्र और काया में वो मुझ से बड़ी थी पर उसका गोरा चिट्टा रंग बालसुलभ मन और चंचलता बरबस ही उसके तरफ खीच ले गई। यू तो मै बड़ा सख्त वर्गनायक था और शिक्षक की अनुपस्थिति में भी वर्ग के संचालन के लिए प्रधानाध्यापक तक से सराहा गया था पर उसकी शरारतो के आगे जाने क्यों कुछ ना कर पाता था ये आपस की तकरार नोकझोक कब लगाव में बदल गयी पता ही नहीं चला। अब तो हम अक्सर ही एक दूसरे को छेड़ने और मिलने के मौके ढूंढते रहते थे हमारा समय अच्छा बीत रहा था कि तभी सरस्वती पूजा का पर्व आ गया जो अमूमन पूरे शहर में बड़े धूम - धाम से मनाया जाता था। मोहल्ले के आशिको को इस समय का बड़ा इंतजार रहता था क्योंकि हरेक आशिक अपनी प्रेमिका को विशिष्ट प्रसाद प्रदान कर के अपने प्रेम का इजहार करता था। ये हमारा इस विद्यालय में अंतिम वर्ष था अतः इस बार के पूजनोत्स्वव का सारा भार हमारी कक्षा पर ही था और वर्गनायक होने के नाते मेरी जिम्मेदारी और अधिक बढ़ गयी थी। मुझे आज भी याद है उसने कहा था कि पूजा वाले दिन वो मेरे लिए सज कर आएगी और मै भी उसे प्रभावित करने के लिए कुछ नए आयोजन की तैयारी कर रहा था।खैर समय अपने मंथर गति से गतिमान था मै चंदा वसूलने एवं अन्य कार्यों मे अपनी व्यस्तता के कारण उस से ना ज्यादा बात और ना मुलाकात ही कर पा रहा था ।

आखिर पूजा का दिन आ ही गया हमने नीले रंग के कृत्रिम तालाब के बीच मां सरस्वती की मूर्ति स्थापित की और उनके वाहन हंस को उसमे छोड़ दिया था समय के हिसाब से ये एक नया प्रयोग था जिसकी सराहना आने वाले हरेक अभिभावकों ने की थी । आयोजनों की व्यस्तता के कारण कुछ दिनों से मै विलंब से घर पहुँच रहा था जिस बात से पिताजी बहुत नाराज हो गए थे और उन्होंने पूजा वाले दिन मेरे विद्यालय जाने पर रोक लगा दी मेरे लाख समझाने पर भी वो नही माने ।अब घर में बैठ कर विचलित होने और उसकी बात को याद कर के कोफ्त होने के अलावा कोई चारा भी नही था। १-२ बजे दोपहर में जब घर के अन्य सदस्य घूमने निकले तब मै भी उनके साथ हो लिया एक दो पंडालों का उनके साथ दर्शन कर सीधा भाग कर विद्यालय पहुँचा। मुझे देखते ही दोस्तों ने और अध्यापकों ने खूब खरी खोटी सुनायी पर मुझे कुछ भी सुनाई ही नहीं दे रहा था मेरी आंखे हर संभव जगह बस उसे ही तलाश कर रही थी।दोस्त मेरी इस हालत को भाँप चुके थे इसलिए उन्होंने ने मुझे उसके जाने की सूचना दी वो बता रहे थे कि आने से ले कर जाने तक वो बार बार मेरे बारे मे ही पूछती रही दोस्तो के बीच उसके श्रृंगार और चेहरे की उदासी की चर्चाएं आम थी मेरे पास अब गुस्सा और पछतावे के कुछ भी शेष नहीं बचा था ।

समय अपनी गति से गतिमान था वो सरस्वती पूजा के बाद कभी विद्यालय दोबारा नहीं आईं। प्यार का एहसास इतना गहरा ना था इसलिए मैं बिना विचलित हुए अपने कामों मे लगा रहा। उसके ही गाँव से आने वाले एक मित्र रणधीर से उसके बारे में बात होती रहती थी। सहसा एक दिन पता चला कि हमारे एक रिश्तेदार की शादी उसी गांव में तय हुई हैं और मुझे भी बारात जाना हैं ऐसा लगा जैसे कही से अतिरिक्त रक्त धमनियों में प्रवाहित हो कर मुझे उद्वेलित कर रहा हो। मैंने ये बात बिना देर किए रणधीर को बताई आशय बस इतना था कि किसी तरह ये खबर उस तक पहुँच जाए और उस से फिर एक बार मुलाकात हो जाए परंतु रणधीर ने जो बात बताई वो हतोत्साहित करने वाली थी वो ये कि जिनके घर शादी हैं उनसे उसके पारिवारिक रिश्ते ठीक नहीं थे । पर आप जानते हैं श्वास और आस मे एक समानता है जब तक होती है तब तक सुकून देती है भले दर्द कितने ही हो।

आखिर वो दिन भी आ गया और हम बारात ले कर उसके गांव पहुंच गये

मेरा मन ना तो किसी रस्म अदायगी मे ना ही सजावट मे लग रहा था बस एक क्षीण सी आस की डोर पकड़े उसे ही तलाश कर रहा था मैं

आयोजन अपने निर्धारण के हिसाब से चलते रहे और मेरी क्षीण सी आस समय के साथ दम तोड़ती प्रतीत हो रही थी तभी अचानक रणधीर भागता हुआ आया और बोला "चल बुला रही है"। निश्चय ही ये वहीं शब्द थे जिसके लिए मै यहां आया था पर जाने क्यों मेरे पैर जम गए और मै एक अजीब मन:स्थिती मे पहुँच गया था तभी फिर से रणधीर ने मुझे खिंचा "अबे चल ना"। रणधीर आगे - आगे और मै उसके पीछे - पीछे शादी के सजावटों से थोड़े दूर पर एक अंधेरी सी गली की ओर चल पड़े ज्योही हम ने गली मै प्रवेश किया एक जानी पहचानी आवाज आयी "कैसे हो?" आधे चांद की अधूरी रौशनी में भी मुझे पूनम का चांद नजर आ रहा था मुख पर एक जीत की मुस्कान लिए उसी बाल सुलभ चंचलता के साथ उसने बाते शुरु की और मै बस एकटक उस देखे जा रहा था तभी अचानक उसके एक प्रश्न ने मेरी तंद्रा भंग कर दी "कभी याद आती हूं मै तुमको?" और मै कुछ कहे बिना सोचता रहा की इस मुलाकात को क्या कहूं

एक प्रेम मिलन या एक बालसुलभ मन का निरुद्येश्य किया हुआ कार्य या फिर एक सहपाठी की दूसरे के साथ अनौपचारिक भेट।


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