STORYMIRROR

Adyanand Jha

Others

4  

Adyanand Jha

Others

छल

छल

7 mins
439

अक्टूबर अपनी समाप्ति की ओर अग्रसर हैं, दिल्ली के रामलीला मैदान में एक भव्य सा मंच और उसके ठीक सामने रावण का विशाल पुतला किसी आगंतुक की प्रतीक्षा में आंखे फैलाए खड़ा हैं।ये रावण दहन हरेक वर्ष की भांति इस वर्ष भी होने वाला हैं ,अचानक से कोलाहल बढ़ने लगा शायद विशिष्ट अतिथि का आगमन हो चुका है, ऐसा प्रतीत हो रहा है।

मंच पर वो विशिष्ट टोपीधारी नेता पहुँच कर अपना स्थान ले लिया हैं , आयोजको ने उसे परंपरा के अनुसार धनुष और प्रज्ज्वलित बाण दिया , ज्योंही उस नेता ने धनुष पर बाण चढ़ाया और मेरी दृष्टि ने उसको पहचाना त्योहि मेरा मन उस बाण से भी तीव्रता से सुलग उठा।


किसी का समर्थन नहीं करने के बहुत से कारण हो सकते हैं, जैसे उसकी सूरत,सीरत,भेष - भूषा, भौगोलिक, शैक्षणिक आधार, परंतु किसी के नैतिक समर्थन के पीछे सिर्फ एक ही बात हो सकती है कि शायद जो काम आप स्वयं करना चाहते हैं, पर किसी कारणवश आप नहीं कर पाते तथा कोई व्यक्ति विशेष उसी काम को कर रहा हो या करने की बात कर रहा हो तो आप चुपचाप उसके पीछे खड़े हो जाते हैं। हालाँकि अब मेरा ये मानना है कि किसी को अपना समर्थन देने से पूर्व आपको उसके श्वेत और श्याम पक्षों को जानने के बाद ही अपनी अंतरात्मा की पुकार को महत्व देना,और ये मै अपनी ग़लती से मिली सीख आपको बता रहा हूं।

बात उन दिनों की हैं जब इसी रामलीला मैदान में देश की गिरती गरिमा,हालत, अर्थ्यवस्था और बढ़ते भ्रष्टाचारों , घोटालों एवम् महंगाई के विरुद्ध एक आन्दोलन चल रहा था। ये आन्दोलन आज के आंदोलनों कि तरह प्रायोजित न था बल्कि पूर्ण रूपेण स्वेक्षिक था, हर वर्ग विशेष करके युवा एक आस के साथ तन, मन, धन से इसे खड़ा करने में लगे थे। मै दिल्ली से दूर आज के प्रयागराज और पूर्व के प्राचीन नगर इलाहाबाद में अपनी ही नौकरी और जिंदगी में मस्त था, परंतु जाने क्यों इतनी दूर से भी इस आन्दोलन की आवाज मुझे विचलित कर रही थी। अतः मै भी इस आन्दोलन का हिस्सा बनने को मचल उठा, मैंने 15 दिनों के अवकाश की अर्जी लगाई और दिल्ली कूच की तैयारी करने लगा। शाम 4 बजे बॉस ने बुलाया और समझाया कि किस प्रकार मेरे ना होने से कम्पनी बंद होने के कगार पर पहुंच जायेगी, जबकि यही महोदय कुछ महीने पहले ये दलील दे रहे थे कि हमारी तनख्वाह बढ़ाने कि आवश्यकता क्या है, हम करते ही क्या है ? खैर जब मै अपनी जिद पर अड़ा रहा तो उन्होंने कारण पूछा और कारण जानते ही गुस्से से आगबबूला हो गए, मुझे मेरे कैरियर बरबाद होने का भय दिखाया गया।


उन्होंने गुस्से से कहा "तुम्हे क्या लगता है? तुम्हारे जाने से ये देश, ये व्यवस्था बदल जाएगी ,अरे तुम जैसे बेवकूफों को सीढ़ी बना कर कोई नेता चमकेगा पर हालात नहीं ? उन्होंने जेपी आन्दोलन और उसके उपजे नेताओ का उदाहरण भी दिया ? ये सब सुनकर मेरा मन विचलित तो हुआ पर उस आन्दोलन की पुकार ने पुनः मेरे बागी हो रहे मन को क्रांति से भर दिया और अन्दर से एक आवाज आयी "सांडर्स गो बैक" कि तभी बॉस की आवाज फिर से गूंजी "क्या सोचने लगे ?" मै अपने ख़यालो से बाहर आते हुए बोला, "सर माना की कुछ नहीं होगा, पर क्या यही सोच के कोई आगे ना आए? प्रयास भी ना करे, ये तो गलत होगा किसी ना किसी को तो आगे आना होगा, सोचना तो होगा ही ना, तो वो मै क्यू नही हो सकता ? बॉस के चेहरे को देख कर इल्म हो गया था कि वो अब ज्यादा देर अपने गुस्से को दबा नहीं पाएंगे, इसलिए मैने अपना त्यागपत्र उनके सामने रख दिया, अजीब सी नज़रों से घूरते हुए बॉस ने जाने को कहा। बॉस के गुस्से को मै जानता था, पता था उनका गुस्सा ठंडा होते सब ठीक हो जाएगा और मैं उन्हें माना लूंगा, इसलिए मै अपने क्रांतिकारी विचारो से ओतप्रोत होकर दिल्ली चलो का नारा बुलंद कर रहा था।


दिल्ली का रामलीला मैदान आदमियों से भरा पड़ा था, मै भी उसी भीड़ का हिस्सा बन गया। सजे हुए मंच के ऊपर बड़े बड़े चेहरे अपनी अपनी राय रखते और नीचे हमलोग उनकी आवाज बुलंद कर रहे होते थे। जैसा मैंने आपको बताया था कि ये आन्दोलन प्रायोजित नहीं था कम से कम हमारे स्तर पर तो बिल्कुल भी नहीं इसलिए ना ही व्यवस्थित टेंट थे, ना खाने मे बिरयानी, मेवे, पिज़्ज़ा और ना ही पीने के लिए शर्बत या अन्य पेय और ना ही थकान मिटाने के लिए मसाज़ वाली मशीनें। यहां अगर कुछ था तो टेंट के नाम पर आड़े - तिरछे बंधे कपड़े, जमीन पर बिछी हुई दरिया, चलित स्वछता केंद्र और चारो और आवश्यकता के समान से पटी रेहड़ियाँ । हम जो बाहर से आए थे वो उसी दरी पर बैठते, चलते, नींद आने पर सो भी जाते और भूख लगने पर उन रेहड़ी वाले से चना, फरी आदि खरीद कर खा लेते। जिनके घर नजदीक थे वो शाम होते ही अपने घरौंदे को लौट जाते और सुबह फिर आ जाते। फिलहाल देश की सेहत में सुधार होगा या नहीं ये तो पता नहीं था पर मच्छरों कि सेहत मे अप्रत्याशित सुधार स्पष्ट दिख रहा था, और मै ये सोच कर खुश था कि चलो कुछ तो बदल रहें हैं किसी की सेहत तो सुधर रही है।

सत्ता पक्ष के द्वारा आन्दोलन दबाने की कोशिशों से उपजी निराशा और क्रांतिकारी मन की आस के बीच द्वंद और ये आन्दोलन निरंतर चल रहें थे। चार पांच दिन बीत चुके थे तो यहां कुछ दोस्त भी बन गए थे तो हम कभी कभी आन्दोलन से समय निकाल कर दिल्ली भ्रमण पर निकल जाते। मेट्रो में ,वातानुकूलित लो फ्लोर बसो मे लोगो से बहस करते उनको अपने नजरिए से अवगत कराते वापस रामलीला मैदान आ जाते।

कभी - कभी इस बात पर भी क्षोभ होता कि जिन आधुनिक सुविधाओं जैसे मेट्रो, फ्लाईओवर, मौल्स,वातानुकूलित लो फ्लोर बस,का आनंद हम ले रहे हैं उसे उपलब्ध करवाने वालों के खिलाफ क्या ये आन्दोलन सही हैं ? फिर क्रांतिकारी मन इसे समय के हिसाब से पीछे होने का तर्क दे कर पुनः आंदोलनरत हो जाता| 

खैर अन्य आंदोलनों की तरह इसका भी एक सुखद अंत हुआ,और बॉस के कहे अनुसार एक चेहरा हमारी आशाओं, आकांक्षाओं को प्रतिबिंबित करता सामने आया। हमे लगा की हम सफल हो गए अब राजनीति से छल, कपट, अशिष्टता, विशिष्ट जन जैसे भाव का अभाव होना अवश्यंभावी प्रतीत होने लगा।

फिर वो दिन भी आया जब हमे इस आन्दोलन में डाली हुए आहुति का फल मिला, हुए चुनाव में हमे पूर्ण तो नहीं पर असाधारण और निर्णायक जीत मिली। हम सब उत्साहित थे रेवड़ियाँ तो नहीं बटी पर हम ने अपने पैसों से मिठाईयां खाई और खिलाई भी। पर समस्याओं का ये अंत नहीं था, हम बहुमत से दूर थे और विकल्प अल्प थे।पहला विकल्प था सरकार ना बनाने का जिसका परिणाम पुनःचुनाव का होना था जो देश को आर्थिक रुप से नुकसान करता, दूसरे विकल्प के रूप में हम समर्थन दे या ले कर सरकार बनाए। हमारी सोच से समर्थन दे कर सरकार बनाना अधिक प्रायोगिक प्रतीत हो रहा था क्यूँ की चुन कर आए अधिकांश अनुभवहीन थे, पर इसमें खतरा नियंत्रण का था कि क्या दूसरा दल जिसे हम समर्थन देंगे वो हमारे मूल्यों का अनुसरण करेगा ? खैर ये बाते तो हमलोगो के बीच चल रही थी जिनका नीति निर्धारण में कोई महत्व नहीं था। हमे इंतजार था निर्णय का ,अचानक ये खबर चली की हम उनके साथ सरकार बना रहे हैं जिनके खिलाफ हम लड़े थे, हम इसे एक भद्दा मजाक समझ रहे थे मतलब कि क्या ये संभव है कि जिसे हम बेनकाब करना चाह रहे हैं, जिनके कुकृत्यो को जानता के सामने लाने का वादा कर चुके हैं उसे ही अपना जोड़ीदार बना ले। यह मर्यादाओं का अस्थि विसर्जन था, छल था या यूं कहे कि राजनीति जनभावनाओं का दामन कर चुकी थी |

इस खबर की सत्यता की पुष्टि होते ही मुझे आठवीं कक्षा के जीव विज्ञान की वो परजीवी बेल याद आ गयी , जिसकी आदत भी होती है दूसरे के सहारे बढ़ने की फिर उसे ही खत्म कर देने की।

हम ठगा हुआ सा महसूस कर रहे थे। मै कभी सृष्टि को तो कभी बाकी साथियों को देखता और कभी अपनी की हुयी तपस्या के फल पर क्षोभ करता। अब हमारा मोह भंग हो चुका था, व्यथित मन से हम अपना सामान समेटकर एक दूसरे से विदा लिए फिर मिलने के वादे किए और भारी मन से हारे हुए सैनिक की भांति वापस लौट चले।

आज शायद मुझसे ज्यादा क्रोध रावण को आ रहा होगा जिसे आज हर क्षण मर्यादाओं का चीरहरण करने वाले मारीच के हाथो फिर से मारा जा रहा है। अरे ये वो रावण है जिसने मर्यादा के खातिर उस दूत को जीवित छोड़ दिया जो उसके पुत्र और कई सेना‌ नायकों के वध का दोषी था। ये वही रावण हैं जो भले ही सर्वे भवन्तु सुखिन‌: की कामना ना रखता हो पर स्वराज्य जना:हित सर्वोपरि का पलक था। आज रावण को अपनी उस युक्ति पर भी रोष हो रहा होगा जिस कारण वो सपरिवार प्रभु श्री राम के हाथो मोक्ष प्राप्ति का स्वांग रचा था । ये जो बुूँदा - बांदी हो रही है वो भगवान इंद्र की कृपा नहीं अपितु रावण के ऐसे निर्लज्ज के हाथो जलाए जाने पर निकलने वाले पश्चाताप के आंसू हैं।


Rate this content
Log in