ANURADHA BHATTACHARYA

Abstract

4.2  

ANURADHA BHATTACHARYA

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अनकही प्यार

अनकही प्यार

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307


आज सुबह से दीपान्नीता बहुत ब्यस्त है। और उतनी खुश भी है। उसका मन आनन्द से भरपू्र है। क्यूं की उसके एकलौता सन्तान रणदीप की शादी तय हो गई है। वैसे तो रणदीप ने खुद ही‌ अपने लिए जीवन साथी पसदं किया है। आज लड़की के माता - पिता आ रहे है, शादी की बात पक्की करने। वस, इसीलिए दीपान्नीता घर सजाने और अतिथीयों के स्वगत की तैयारी में बहुत ब्यस्त है। क्या क्या पकवान बनाएगी, कैसे घर सजायेगी,इन सब में वो बहुत ब्यस्त है। उसकी बर्षो की इच्छा पूरी होने जा रही है। " लड़के को शादी " को लेकर उसके मन में एक सपना था। जो आज लगभग पूरी होने जा रही है। इसीलिये दीपान्नीता आज जैसे हवा में उड़ रही है। अनजानी सी एक खुशीउसके मन को घेरे हुए है। दौर दौर कर काम कर रही है। उसे लग रहा है की कही कुछ कमी न रहे जाय।

सजल, दीपान्नीता का पती, आश्चर्य हो कर  ' नीता ' को देख रहा था। सजल दीपान्नीता को 'नीता' कहकर ही बुलाता है। शादी के बाद पहले दिन ही सजल, दीपान्नीता का इतनी लंबी नाम को छोटा करके 'दीपा' कहकर बुलाना चहता था। लेकिन दीपान्नीता, सजल को रोक देती है। उसने कहा, ---" अगर नाम छोटा ही करना है तो 'नीता' कहकर बुला सकते है, 'दीपा ' कहकर नहीं ं । " तभी सजल को थोड़ा आजीब लगा था। अखीर 'दीपा ' बुलाने में क्या बुराई है ! सजल पूछना भी चाह रहा था, --" क्यूं, दीपा क्यूं नहीं ं "--- लेकिन नई नवेली दुल्हन की और देखकर कूछ कह नहीं ं पाया । सिर्फ मुस्कुराते हुए कुछ पल अपनी नई दुल्हन को देखता रहा। फिर उसके पास बैठते हुए कहा था -- " ठीक है।  तुम्हे 'दीपा' बुलाना पसंद नहीं ं है तो ना सही, तुम्हारे पसंदके नाम से ही बुलाऊंगा, "नीता " -- अब ठीक है ?"

रोज की नीता और आज की नीता में ज़मीन आसमान का फार्क है। सजल नीता को इतने ध्यान से देख रहा है, नीता को इसका भी होश नहीं ं है। सजल की आवाज से उसे होश आता है। चौंकते हुए सजल की ओर देखती है। सजल कहता है, --- " क्या बात है ! आज तो तुम हवा में उड़ रही हो। सब काम एकदम फूर्तो से कर रही हो। आज तुम्हारा घुटने का दर्द, सरदर्द,कमर दर्द -- सब गायब ?" नीता अपना हाथ रोके बिना ही पहले जैसा ही काम करते करते जबाब देती है, --- " आज अगर दर्द लेकर बैठ गई तो हो गया। तुमसे तो कुछ होता नहीं , इसीलिए सारे दर्द को एक बक्स में बंद रख कर काम कर रही हूं। "-- कहते कहते नीता अंदर कमरे में चली जाती है। फिर तूरंत ही वापस आकर सजल से कहती है, ---" अब आप भी उठो। बैठे मत रहो। बजार भी तो जाना है की नहीं ं । "फिर अंदर चली जाती है। दीपान्नीता की बात सुनकर अब सजल को भी लगा की, नहीं ं अब और देर नहीं ं करना चाहिए। ज्यादा देर करुंगा तो कही मेहमान न आ जाय। जल्दी चाय खतम करके सजल भी उठ खड़ा होता है, इतने मे बाहर गाड़ी रुकने की आवाज से दोनो चौंक जाते है। --- इतनी सुबह तो लड़कीवाले नहीं ं आनेवाले थे ! फिर !---- दीपान्नीता अंदर से लगभग दौरते हुए बाहर आती है। सजल की ओर इस तरह से देखती है की सारा दोष सजल की ही है। --- " अब,-- अब क्या होगा ? ये लोग इतनी सुबह सुबह आ गये ! कह रहे थे १२ -- १ बजे तक पहुचेंगे। मेरा तो अभी काम भी पूरा नहीं ं हुआ। अब उनके साथ बैठ कर बातें करु या काम करु !उपर से मेरा नहाना भी नहीं ं हुआ अबतक। " सजल दीपान्नीता की बातें का जबाब दिये बिना ही मेहमानोके स्वागत के लिये दरवाजे की और बढ़ता है। दीपान्नीता उसे रोकती है। --- " अरे क्या कर रहे हो ! ज़रा अपनी तरफ देखा भी है, कैसे कपड़े पहने है ! मुड़े तुड़े रात के कपड़े में क्या लड़के के ससुराल वालों के सामने जायेंगे ?" सजल मुड़कर दीपान्नीता की और देखकर व्यंग करते हुए कहता है, --- " हां, एक काम क्यूं नहीं ं करती, रघु (नौकर ) से कहो मेहमान को बाहर खड़े रहने को कहे,और हम दोनो अंदर जा कर अपने सादी का जोड़ा पहनकर बनठन कर आते है मेहमानो का स्वागत करने। क्यूं ठिक रहेगा न ? तुम भी अपनी बनारसी पहन लो। " दीपान्नीता जबाब मे कुछ कहने ही वाली थीकी इतने में, --- " क्या हुआ भाबी आज ही बनारसी साड़ी पहनकर बहु का गृह पवेश करवा रही हो क्या ?" कहते कहते हंसते हुए अंदर आती है, दीपान्नीता की ननद जली। जली की आवाज से दोनो पलटकर देखते है। ननद को देखकर दीपान्नीता की जान मे जान आई। --- "आच्छा तो ये तुम्हारी गाड़ी की आवाज थी। हम दोनो तो डर ही गये थे। " कहते कहते दीपान्नीता जली को लेकर सोफे पर बैठ जाती है। सजल जली को अकेला आते देख कहता है, --- " तु अकेले ही आई !" जली सोफे पर बैठते बैठते कहते है, " मुझे तो अकेले ही आना था। हम दोनो को साथ में आने की बात तो हुई नहीं । इसके इलावा उनको अफिस जाना था। कह रहे थे शादी के वक्त आएंगे, अभी नहीं । और हमारी बच्चो, बाप्पा और रीनी ने कहा है,--- हमारी होने वाली भाबी तो वहां नहीं ं आ रही है । फिर वहां जा कर हम क्या करेंगे । " असल में, वो चारो आज एकसाथ मिलने वाले है। रणो ने उन दोनो से आज दीपाली को मिलाना चहता है। -- ये सुनते ही दीपान्नीता बोलती है --- क्या ! रीनी को दीपाली के साथ परिचय करवाना है ?अरे तुम्हे तो कुछ पता ही नहीं । रीनी और दीपाली दोस्त है, एकसाथ कलेज में पड़ती है। रीनी ने ही तो रणो से दीपाली को मिलवाया था। रीनी ने --- बात खतम होने के पहले ही दीवार पर टंगे घड़ी मे घंटे की आवाजढंग ढंग करके बताता है की १२ बज गये।

  सब को एकदम से होस आता है। दीपान्नीता तो एकदम उछल पड़ती है,--" बापरे १२ बज गये !" सजल से कहती है, -- " तुम क्यूं अभीतक बैठे हो ? बाजार नहीं ं जाना है क्या ! मिठाई भी तो लाना है। " जली चौंक जाती है । कहती है, -- " क्या अभी भैया बाजार जायेंगे ! फिर कब सब्जी लायेंगे और कब खाना बनाओगी भाबी !" दीपान्नीता जली को शांत करती है। कहती है, -- " अरे नहीं ं नहीं , खाना सब बन चुका है। सिर्फ मिठाई और सलाद के लिए ककड़ी लाना है। मिठाई की दुकान भी तो बाजार के पास ही है। अब जली चैन के सांस लेते हुए कहती है,--- " भाबी तुम नहाने चले जाओ। और भैया तुम भी खड़े न रहे कर जल्दी बाजार से जो कुछ लाना है ले कर आऔ। तब तक यंहा क्या क्या करना है में देख लेती हूं। " सजल उठ खड़ा होता है, फिर जली की ओर देखकर मजाक करके कहते है, --- " अपनी भाबी से पूछ ले, लड़के के सास - ससुर को स्वागत के लिए क्या क्या चाहिये। उनको आरती उतरना है या नहीं , -- फिर तु आरती की थाली भी सजा के रख। शंख भी रखना भुलना मत। "--- कहते हुए सजल हंसते हंसते अंदर चले जाते है। दीपान्नीता एकदम से चिढ़ जाती है। -- " देखा, तुम्हारे भैया किस तरह से बात करते है, सुबह से इसी तरह से मुझे सिर्फ ताने मार रहे है। " जली हंसते हूए अपनी भाबी को शांत करती है, --- अरे भाबी, नाराज क्यूं होती हो, ये तो भैया का हमेशा की आदत है। भैया तो सबके साथ ऐसे ही बात करते है। तुम तो भैया की आदत को भलेभाती जानती ही हो। अब खड़े मत रहो, जाओ जा के नाहा लो। " --- बोलकर, जली जैसे अपनी भाबी को धकेल कर नहाने भेज देती है।

  दीपान्नीता नहाने चली जाती है, सजल भी बाजार के लिये निकल जाते है। अब जली कमरे की चारो ओर नजर घुमाती है। सब कुछ ठिक है या नहीं ं देखती है। मुआयना करते करते उसकी नज़र कमरे के कोने मे रखे टेबल पर पड़ती है। टेबल के पास जा कर टेबल पर रखे फूलदानी मेसे नकली फूल को निकाल कर उसमे खुदके लाये हुए असली ताजे रजनीगंधा के फूलदस्ता से सजा देती है। अब टेबल को साफ करते करते नौकर रघु को आवाज देती है। --"रघु - - - रघु "। रघु रसोई मे से बाहर निकल कर -- "जी आया " कहते हुए जली के पास आकर कहता है, -- "अपने बुलाया दिदि ?" जली कहती है, " हां, तुम अभी भी रसोई में क्या कर रहे हो ?अभी तक खाना नहीं ं बना क्या !" रघु कहता है, " नहीं ं नहीं , आज तो सारा खाना भाबीजी ने खुद बनाया है। में तो अभी चाय की बर्तन साफ करके रख रहा था। " जली टेबल से नकली फूलो को रघु को देते हुए कहती है, "इन नकली फूलो को अंदर के कमरे में रख दो । " फिर मुढ़कर सोफे के कवर कोझाड़ कर ठिक करने लगती है। रघु ताजे रजनीगंधा के फूलो को देखकर पूछता है, " दीदी, ये ताजे फूल आप लेकर आई क्या ? कितना सुन्दर है। " -- कहते हुए फूलों को जरा छुकर नकली फूलों को ले कर अन्दर के कमरे मे रखने चला जाता है।

  जली सेन्टर टेवल पर रखे पेपर और किताबों को ठीक से रख रही थी की उसका मोबाईल बजता है। जली जल्दी से अपने बैग में से मोबाईल निकालती है। मोबाईल में नाम देखकर मुस्कुराते हुये बात करती है, --- " क्या हुआ ! अफिस में मन नहीं ं लग रहा है ? कहा था आपसे, आज अफिस बंक मरकर भैया का यंहा चलो। तब मेरी बात नहीं ं माने और अब अफिस में मन नहीं ं लग रहा है न? " उस ओर से जली के पती ने कुछ कहा जिस के उत्तर में जली ने फिर कहा, --- " हां, हां, में ठीक समय पर पहुच गई हूं। पहुच ते ही driver को गाड़ी लेकर भेज दिया है। वो पहुचता ही होगा। अगर संभब हो तो तुम अफिस से लौटते समय भैया के घर पर आ जाना। फिर हम दोनो एकसाथ घर लौट चलेंगे, क्यूं ठीक है न? अच्छा अब रखती हूं। " जली फोन बंद करके रखने ही वाली थी की फिर फोन बज उठता है। जली चिरकर कहती है,-- " इन्हे भी न चैन नहीं ं पड़ रहा है । " कहते कहते फोन की तरह देखती है,---- नहीं ं इसबार रणदीप का फोन है। ---" हां, बोल रणो, हां, ---- हो सकता है । तेरी मा नहाने गई है। इसलिए तेरी फोन उठा नहीं ं पाई। और मैं भी तेरी फूफाजी से फोन पर बात कर रही थी। तेरी मा का फोन अंदर के कमरे में है। इसीलिए मैं भी सुन नहीं ं पाई। हां बोल, फोन क्यूं किया ? तेरी मां से कूछ कहना है? ---- नहीं , नहीं , वो लोग अभी तक नहीं ं पहूचे। ---- हां, हां ठीक है। " कहते कहते सोफे पर बैठ जाती है। फोन बैग मे रखती है। ठीक तभ्भी रघु,एक गिलास शरबत लेकर उसके पास आता है। --- " दीदी, ये शरबत पी लिजीए। आज भाबी ब्यस्त है, इसीलिए भूल गई । " जली रघु के हात से शरबत का गिलास लेकर, 'धन्यबाद ' बोलती है। और एक सांस में पूरी शरबत पी कर,रघु को गिलाप वापस करते हुए कहती है,--- " हुं, भाबी ने तुझे अच्छी शिक्षा दी है। " रघु शरबत का खाली गिलास लेते हुए कहता है, --- " आपको पता नहीं , बाद में भाबी मुझसे जरुर पुछेंगे -- मैने अपको चाय या शरबत दिया की नहीं ं । " कहते हुए रघु अंदर रसोई मे चला जाता है।

दीपान्निता नहाकर बाहर आ चुकी थी। बाथरूम से निकलते निकलते उसने रणदीप और रीना को फोन पर बात करते सुन लिया था। इसीलिए उसने पूछती है " किसका फोन था रीना, रणो का ? " रीना वहीं बैठ कर जवाब देती है --- " हां, पूछ रहा था यहां हमलोगो की तैयारी कैसी चल रही है। वो लोग अभी तक पहुंचें की नहीं ं । उन लोगों का फोन आया था या नहीं ं । " फिर रीना दीपान्निता से कहती है --- तुम्हें और कितनी देर लगेगी भाभी , जल्दी करो। उन लोगों को आने का समय हो चुका, बस वो लोग पहुंचते ही होगें । दीपान्निता अपना पल्लु ठीक करते करते बाहर आती है। ---- " बस मैं तो तैयार हूं। तुम्हारे भैया अभी तक नहीं ं आते न ? " दीपान्निता की बात पूरी हुई भी नहीं ं कि सजल रघु को आवाज देते हुए अन्दर आते हैं, " रघु - - रघु जल्दी आ, ये सब ले जाकर अन्दर रख " । रघु दौड़ते हुए आकर सजल के हाथो से सामान लेता है। इतने सारे मिठाई का डब्बा देखकर रीना से और चूप नहीं ं रहा गया,--- " बापरे,भैया ये क्या ! तुम आज ही शादी की मिठाई लेकर आ गये ? " सजल सोफे पर आराम से बैठते हुए कहते हैं, " पहले तो मैं दो तरह की मिठाई लाल रहा था, फिर दुकान में देखा उनलोगो ने एक नई मिठाई बनाई है। देख कर लगा बहुत अच्छा होगा। इसीलिए ले आया। देखते हैं कैसा है । " इतने में दीपान्निता पुछती है,--- ककड़ी लाये हो या नई मिठाई देखकर ककड़ी लाना भूल गए ?" सजल ज़रा ज़ोर से ही जवाब देता है," हां, हां, तुम्हारा ककड़ी भी लाया हूं । भूला नहीं ं । जाओ,अब जाकर अच्छे से सलाद बनाओ। " इतने में रघु दौड़ते हुए रसोई से बाहर आकर कहता है --- भाभीजी  भाभीजी अब्भी बाहर गाड़ी रुकने की आवाज आई। लगता है वो लोग आ गये।

  सब एकदम से खड़े हो जाते है। दीपान्निता रघु से कहती है,--- एक काम कर, तु ही सलाद बना लें। अच्छे से बनाना । ठीक से काट पायेगा न ? रघु,' हां ' कहकर जाने के लिए मुढ़ता है कि दीपान्निता फिर बुलाती है। --" और सुन पहले से ही चाय मत बना लेना, पहले उन लोगों से पूछ लेते हैं क्या लेना पसंद करेंगे चाय या शरबत । उस हिसाब से बनाना, समझा ? " रघु ' ठीक है ' कहता हुआ रसोई में चला जाता है।

रघु ने ठीक ही सुना था। मेहमान आ गये है। दीपान्निता जब तक रघु को सब समझा रही थी तब तक सजल सामने का दरवाजा खोलकर गेट तक पहुंच चुके थे, मेहमानों के स्वागत के लिए। रीना पहले से ही दरवाजे पर खड़ी थी, अब दीपान्निता भी दरवाजे की ओर बढ़ती है और आगे बढ़कर लड़की की मां और मौसी को आदर पूर्वक अन्दर लाकर बिठाती है। फिर दीपान्निता दरवाजे के पास खड़े हो कर लड़की के पिता और मौसाजी के स्वागत के लिए खड़ी रहती है। सजल लड़की के पिता और मौसाजी से गेट के पास खड़े होकर कुछ बातें कर रहे थे। इसी लिए उन्हें थोड़ा समय लग रहा था। फिर सजल और लड़की के मौसाजी पहले बातें करते हुए घर के अंदर आये और पीछे पीछे लड़की के पिताजी अन्दर आते आते दीपान्निता की ओर देखते हैं। ठीक उसी वक्त दीपान्निता भी लड़की के पिता की ओर मुखातिब होते हुए हाथ जोड़कर नमस्कार कहने ही वाली थी की दोनों ही एक दूसरे को देख कर चौंक जाते हैं। दीपान्निता लड़की के पिता को देखते ही आश्चर्य से बुत बनकर खड़ी रह जाती है।

उसे चक्कर आने लगता हैं। उसके आंखों के सामने अंधेरा छा जाता है। लड़की का पिता का भी वहीं हाल था। दीपान्निता गिरने ही वाली थी की लड़की के पिता सोच में पड़ गये, उसे पकड़े या नहीं ं। इतने में सजल की नजर पड़ते ही सजल दीपान्निता को संम्भाल लिया। दीपान्निता भी किसी तरह अपने आप को संभालती है। सजल पुछता है," क्या हुआ ? चक्कर आ गया ? " दीपान्निता धीमी आवाज में बड़बड़ाती है --- " पता नहीं , थोड़ा चक्कर सा आ गया । अब मैं ठीक हूं। " लड़की के पिता पूछते है, --- " क्या हमेशा ऐसा होता है? " सजल जल्दी से जवाब देता है --- " अरे नहीं ं नहीं , वैसा कुछ नहीं । असल में आज, आप सबके आने की खुशी में सुबह से इतनी दौर दौर के काम में लगी है की पूछो मत। इसी लिए थोड़ी सी थकान होगी । " लड़की के पिता और दीपान्निता एक दूसरे की ओर देखते हैं। नजर मिलते ही दीपान्निता आंखें फेर लेती है और करीब दौड़ते हुए अन्दर चली जाती है।  

 थोड़ी देर में दीपान्नीता अपने आप को संभाल लेती है और बाहर कमरे में सबके साथ आके बैठते है। वंहा बैठे सबके साथ बात करते करते उसकी ध्यान बार बार लड़की के पिता की ओर जा रही थी। जब भी दीपान्नीता की आंखे लड़की की पिता के ओर जाता है, देखती है की उन्हे उसे ही देख रहे है। इसी कारण दीपान्नीता की हालत और भी खराब हो रही थी। उसकी हांथ - पांव जैसे ठंडे पड़ रहे थे। ठीक से बात भी नहीं ं कर पा रही थी। लग रहा था गले मे कूछ अटक गया है। खाने के टेबल पर तो दीपान्नीता से और ज्यादा गड़बड़ होने लगा। किसी को क्या परोस रही है, उसे जैसे कुछ ध्यान ही नहीं ं थी। मछली परोस ते समय तो एक कांड ही हो गये। लड़की के पिता को मछली परस ही रही थी की दीपान्नीता का हाथ कांपते हुए कटोरी से सब्जी लड़की के पिता के उपर गिरनेवाली थी। अचानक लड़की के पिता, दीपान्नीता का हाथ पकड़ लिया और उसे गिरने से बचाया। लड़की के पिता का स्पर्श मिलते ही दीपान्नीता सिहड़ उठती है। उसे जैसे ४४०भोल्ट का झटका लगता है। कूछ देर वो बुत बनकर खड़ीं रह जाती है। लड़की की मां दीपान्नीता की ओर भौहे सिकोड़ कर देखती है, की माजरा क्या है। तभी लड़की के पिता दीपान्नीता का हाथ छोड़ते हुए कहते है,--- "आपकी तबीयततो ठीक है न ?" दीपान्नीता किसी तरह हां में सिर हिलाती है। उसे समझ नहीं ं आ रहा था की वंहा खड़ी रहे की अंदर चली जाय। तभी रघु की आवाज से उसे राहत मिलती है। रघु उसे -- " भाबीजी ज़रा यंहा एकबार आयेंगी "-- कहकर बुला रहा था। दीपान्नीता, " हां, आ रही हुं। " कहते हुए तुरंत वंहा से चली जाती है।

  तीन घंटे लड़कीवालों के साथ कैसे बीता, दीपान्नीता को कोई होश नहीं । जाते समय लड़के के पिता उसकी ओर देखकर कहते है, -- " अपने तबीयत का ध्यान रखिया गा। " फिर सजल की तरह मुखतीब होते हुए कहते है, --- " शादी का डेट आपलोग ही तय करके बता दीजिये। बाकी तो बातचीत हो ही गई है। " फिर सब से बिदा लेके गाड़ी में बैठकर चले जाते है।

लड़कीवालों के जाते ही जली भी चली जाती है, यह कह कर कीउसके पती को जरुरी काम आ गया इसीलिए वो जली को लेने नहीं ं आएगा। तो अब जली को उसकी सहेली से मिलने का मौका मिल गया। इसीलिए जली जल्दी ही चली गई ।

अब उसके चले जाने के बाद सजल दीपान्नीता से पूछता है,--- " क्या बात है ! अचानक तुम्हे क्या हो गया था ?लड़कीवाले के आते ही तुम एकदम बदल सी गई ! आखीर तुम्हे हुआ क्या था !" दीपान्नीता अपने स्वभाव के विपरीत चिल्ला उठती है, --- " मुझे क्या होगा ?" सजल पहले से ही उसके व्यवहार से चकित थे, अबदीपान्नीता का साधारन सी बात पर यूं झल्ला उठना, सजल को और आश्चर्य चकित कर देता है। फिर भी शांत स्वर में ही कहता है,--- "पहले तो लड़कीवालों को लेकर तुम बहुत उत्साहित थी। पर उन लोगों से मिलने के बाद लगा, तुम्हे उत्साह ही नहीं ं रहा। तुम उन लोगों से ठीक से बात भी नहीं ं कर रही थी। तुम्हे उन लोग पसन्द नहीं ं आया क्या ?" दीपान्नीता का बात करने का बिलकुल मुड नहीं ं था। फिर भी अपने आप कोकिसी तरह सम्भालकर कहती है, --- " नहीं , ऐसा कुछ नहीं ं है। अचानक ही मेरी तबीयत कुछ खराब हो गई थी। अभी भी सिर मे बहुत दर्द हो रहा है। बात करने की भी इच्छा नहीं ं हो रही है। मैं ऊपर की कमरे में सोने जा रही हूं। रणदीप आएगा तो मुझे मत बुलाना। मेरा सरदर्द कम होने पर मैं खुद ही नीचे आ जाऊंगी। " -- इतना कहकर दीपान्नीता ऊपर के कमरे में चली जाती है। सजल, दीपान्नीता को ऊपर जाते देखता रहा। दीपान्नीता के इस आचरण सेउसे बुरा लग रहा था। उसे दीपान्नीता, एक अलग ही दीपान्नीता लग

ऊपर के कमरे में आकर दीपान्नीता जोर से दरवाजा बंद करते है, और सीधा बिस्तार पर लोट पड़ती है। उसे जोड़ से रोना आ रहा था। अपने आपको और नहीं ं रोक पाई। तकियें पर मुह रख कर सिसक सिसक कर रो पड़ी । काफी देर तक रोने के बाद सही में उसके सिर में दर्द सुरु होने लगा। उसने सोचा, --- थोड़ी देर सो जाउंगी तो ठीक लगेगा। ---- लेकिन आंखो में नींद कहां ! उसके मन में उथल पुथल मचा हुआ है। हजारों सवाल उठ रहे है उसके मन में। ये क्या होने जा रहा है ! रणो किसकी बेटी से शादी करने जा रहा है ! अगर ये शादी होती है तो जिन्देगी भर बारबार उस इन्सान के सामने जाना होगा ! नहीं ,--- नहीं ं । ये --- ये --- नहीं ं हो सकता। कभी भी नहीं ।

काफी देर बाद, दीपान्नीता एकदम शांत हो जाती है। खुद ही अपने आप से सवाल करती है, --- " क्यूं इतने सालो के बाद रंजन को देख कर उसका मन दुर्बल हो रही है ? क्यूं मन मे ऐसी हलचल मच रही है ? क्यूं ?- - -  सालो पहले मैंने खुद ही तो रंजन से नाता तोड़ा था । - - - पर क्या करती ? उस दिन रंजन से नाता तोड़ने के अलावा मेरे पास और कोई चारा भी तो नहीं ं था। - - - " इसी तरह अपने आप से लड़ते-लड़ते खो जाती है अपने ३० साल पुरानी जिंदेगी में।

तब दीपान्नीता कलेज में पढ़ती थी। कलेज के नए दोस्तों में से दो-तीन लड़कें बहुत करीबी दोस्त बन गए थे। उन्ही में से एक था दीपक। दीपक से ही उसके भैया का दोस्त 'रंजन' दा के बारे में सुना था। दीपक हमेशा रंजन दा के बारे में ही बात कहता था,--- " रंजन भैया ऐसे है, रंजन भैया वैसे है। " और आश्चर्य की बात तो ये है की, दीपान्नीता अपने लाइफ पार्टनर के बारे में जैसा सोचती थी, दीपक के 'रंजन दा ' वैसे ही थे। इसी लिए दीपान्नीता मन ही मन रंजन दा को चाहने लगी। पर इसके बारे में दीपक तो क्या, किसी को भी भनक तक नहीं ं पड़ने दिया। वैसे ही दीपान्नीता बहुत गंभीर स्वभाव की थी। इतनी जल्दी अपने मन की बात किसी को भी पता नहीं ं चलने देती थी। इधर दीपान्नीता, रंजन दा के बारे मैं सुन सुनकर उससे प्यार कर बैठी। ठीक रवीन्द्र नाथ टैगोर की गाने की तरह, --- "अभी तक उन्हें देखा नहीं ं सिर्फ उनकी बांसुरी की धुन सुनी है। "दीपक से सुनी हुई रंजन दा की हर बात उसे बांसुरी की धुन जैसे ही लगती थी। अंदर ही अंदर रंजन को देखने के लिए, उनसे मिलने के लिए, दीपान्नीता बेचैन रहती है। लेकिन दीपक से कह नहीं ं पाती। दीपक ने कहा था की, रंजन दा उसके पड़ोस में ही रहते है। दीपक के वंहा उनका रोज आना जाना रहता है। क्यूं की दीपक के बड़े भैया यहां नहीं ं रहते है, काम के सिलसिले में बाहर रहते हैं। अंकल आंटी से मिलने, उनके तबियत के बारे में पूछने अक्सर दीपक के घर आते है। दीपान्नीता जब भी दीपक के घर जाती है, मन ही मन प्रार्थना करती है की रंजन दा भी उसी समय वहां पर हो, ताकी दीपान्नीता रंजन दा को देख सके, मिल सके। लेकिन हरबार उसे निराश होना पड़ता है। बहुत इच्छा होती है की दीपक से रंजन दा के बारे में पूछे,पर नहीं ं पूछ पाती।  मन ही मन दीपान्नीता रंजन दा से मिलने के लिए व्याकुल ही उठती है,पर फिर भी दीपक को जब भी पूछने जाती है तो न जाने क्यूं, गले में ही बात अटक जाती है। इसी समय एक दिन दीपक कहते है की उसके भैया का शादी तय हो चुका है। ये शुभ समाचार से दीपान्नीता का मन, दीपक से भी दुगनी खुशी से झूम उठी। क्यूं की, अब तो वो अपने प्यार को देख पायेगी।

दीपक और दीपान्नीता की दोस्ती सिर्फ उन दोनों में ही सीमित नहीं था, उन दोनो की परिवार में भी काफी आना जाना था। ये शादी के सिलसिले में दीपक के माता-पिता ने पहले से ही दीपान्नीता की माता -पिता को कह दिया था कि शादी के दो दिन पहले से ही दीपान्नीता उनके घर आकर रहेगी।

आखिर में वो दिन आ ही गया। दीपान्नीता, भैया के शादी के दो दिन पहले ही दीपक के घर रहने चली आई। शादी के खुशी से भी ज्यादा, ' रंजन दा से अब जरुर मुलाकात होगी, ' --- ये खुशी से उसके मन में लाड्डू फुट रहे थे और वो सिर्फ रंजन दा से मिलने के इन्तजार में ही थी।

शादी के घर में बहुत सारे मेहमान आये हुए थे। सबसे दीपान्नीता का परिचय भी हो चुका था। इन सब में दीपक की ममेरी बहन रीना के साथ उसकी बहुत गहरी दोस्ती हो गई थी । भैया के साथ भी उसकी पहली मुलाक़ात था।

  दीपान्नीता और रीना दोनोें मिलकर दिनभररंगोली डालना, फूलों से घर सजाना, बड़ों की फरमाइशें पूरी करना, ये सब काम करते हुए बहुत व्स्तय और खुश थी। देखते-देखते पूरी दिन निकल गया लेकिन एकबार भी रंजन दा की दर्शन नहीं ं मिला, इसी लिए दीपान्नीता थोड़ी उदास हो गई। फिर पता चला, दीपक के सभी ममेरी चचेरी बहनों के साथ वो और रीना का भी रात को सोने का बंदोबस्त पड़ोस में रंजन दा के यहां किया है। दीपान्नीता का मन खुशी से झूम उठी, एक आशा के साथ की -- 'अब तो जरूर रंजन दा से मुलाकात होगी। ' रात को रंजन दा के यहां सब लड़कियां मिल कर खूब गप्पे, हंसी मजाक में काफी रात हो गई की इतने में किसी पुरुष की गंभीर आवाज आई, --- " बहुत हो गई हंसी मजाक, अब और नहीं । कल सुबह तुम सबको जल्दी उठना भी है। अभी के अभी लाईट बंद करो और सो जाओ। " -- सुनते ही इन मे से एक उठ कर लाईट बंद कर देती है लेकिन धीमी आवाज में हंसी मजाक चलता रहा काफी देर तक। थोड़ी देर में दीपान्नीता रीना को पूछती है, --- " रीना, वो कौन थे, जिन्होने हमे बत्ती बुझाकर सोने के लिए कहकर गए ? " रीना हंसते हुए जवाब देती है, " और कौन, रंजन दा। जिनके कमरे में हम लोग सो रहे है। " ये सुनते ही दीपान्नीता के अंदर एक सिहरन सी होने लगी। वो मन ही मन सोचने लगी, -- ये कमरा रंजन दा का ! मैं उनके बिस्तर पर लेटी हुई - - -! ये आवाज उनकी - - - ! अनजानी एक खुशी से उसकी मन झूम उठती है। और ये ही सब सोचते सोचते एक समय उसकी आंखें लग जाते हैं।

दुसरे दिन भोर होते ही उन सब दीपक के घर चली आती है और दीपक के सारे भाई बहनों के साथ मिलकर लड़की के घर हल्दी रसम की सामान ले जाने की तैयारी में लग जाते हैं। काम के साथ साथ हंसी मजाक भी चल रहा था, इतने में दीपक की मां आ कर दीपान्नीता को एक छोटी कटोरी दे कर कहती है --- " दीपा, ज़रा इस कटोरी से ३० कटोरी चांवल निकाल कर इस घड़े में रख। " --- दीपान्नीता भी, -- " हां चाची जी लाओ" बोलकर चाची जी से कटोरी लेकर, गिन गिन कर घड़े में चांवल डालने लगी । दीपक के सारे भाई बहनों ने उसे घेर कर बैठ गए और हंसी मजाक करने लगे ताकी दीपान्नीता का ध्यान हटा सके। लेकिन दीपान्नीता जो भी काम करती है, एकदम मन लगाकर करती है। इसी लिए बिना गलती किये उसने पूरी ३० कटोरी चावंल निकल कर दीपक की मां को दे आती है। फिर जब वापस आके सबके साथ गप्पे मारने बैठती है तो किसी की आवाज से चौंक जाती है । --- "क्यूं, तुम सब हार गए न ? कौशिश करने पर भी तुम सब उसका गिनना गलत नहीं ं कर पाए। "--- देवा पीछे मुड़कर देखता है, और --- " अरे रंजन दा ! तुम कब आए?" सपना पूछती है -- "तुम को कैसे पता की हम सब दीपान्नीता का ध्यान हटाने की कोशिश कर रहे हैं?" --- " में तो पहले से ही तुम सबको देख रहा था। लेकिन तुम सब हार गए। ये बात तो मानना ही पड़ेगा। इसे कहते हैं सुशील लड़की। " -- दीपान्नीता को अब समझ में आया, की ये लोग उसका काम बिगड़ने आए थे!पर कुछ भी हो, उसे बहुत मज़ा आया ये जान कर की, ये लोग उसे हारा नहीं ं पाये। उस से भी ज्यादा खुशी हुई इस बात पर, की रंजन दा ने उसकी तारीफ की।  फिर वो रंजन दा की ओर देखती है और देखते ही रह जाती है। आंखें फेर नहीं ं पा रही थी। अचानक, "कोई देख लेगा " इस डर से आंखें नीचे कर लेती है।  दीपान्ननीताका मन खुशी से झूम उठी । एक तो उनको देेखने ओर मिलने का इंतजार खतम हुआ, उपर से ऱजन दा ने उसकी सभी काम की भरपूर तारीफ किया। सिर्फ इतना ही नहीं ं उसकी बनाई रंगोली इतनी पसन्द आई की रंजन दा ने उस रंगीली का फोटो भी खीचकर रख लिया। सब ने ही उसकी बनाई रंगोली और सजावट की तारीफ की थी पर दीपान्नीता के लिए रंजन दा का तारीफ करना अमूल्य है।

शाम हो गई, बारात निकलने का वक्तहो गया। सब कोई सजने संवरने मे लगे हैं। दीपान्नीता कभी भी मेकअप नहीं ं करती है। सिंपल रहना ही पसंद करती है। जब सब लोग सज संवर कर तैयार हो गयेतब दीपक के बड़े काका दीपान्नीता को देखकर कहते हैं, " ये क्या, तुम नहीं ं चल रही हो क्या ? अभी तक तैयार क्यूं नहीं ं हुई ? जाओ, जल्दी जा कर तैयार हो कर आओ। गाड़ी आ गई है। देर मत करो। " दीपान्नीता कहती हैं, " में तो तैयार हूं। " काका आश्चर्य हो कर कहते हैं, " कहां तैयार हो ! मेकअप नहीं ं किया, लिपस्टिक नहीं ं लगाया ! बाकी सबको देखो तो, कितना सज संवर कर जा रहे है। " रीना पास आते हुए कहती है, " देखिए न काका, ये सजने को तैयार ही नहीं । कहती है, 'में ऐसे ही ठीक हूं। ' " बन सवंर कर दीपक हांथ मे सामान ले कर, जाते जाते कहते है, " वो ऐसा ही है। इससे ज्यादा तैयार होगी तो पहचानना मुश्किल हो जाएगा। " हंसते हुए चला जाता है। इतने में रंजन वहां काफी बेलफूल का गजरा ले कर आते हैं। दो गजरा अपने पास रखकर बाकी गजरा रीना को दे कर कहते हैं, " तुम लोगों के लिए है। तुम सबको बांट देना। " रीना गजरा लेकर चली जाती है । उसने जाते ही दीपान्नीता के ओर देख कर कहते हैं, " लड़कियां सजती नहीं ं है पहली बार देखा। वैसे ठीक भी है। तुम्हे सजने की जरूरत भी नहीं ं है। तुम 'अरीजिनल ब्यूटी ' हो। काका ठीक कहा न मेंने?" कहते कहते दीपान्नीता के थोड़ा करीब आ कर दोनो गजरा उसकी ओर बढ़ाते हुए कहते हैं, " अगर मैं कहूं, ये गजरा अपने बालों में लगा लो, तो तुम इनकार तो नहीं ं करोगी न ? लगालो,अच्छी लगेगी। " कहते हुए उसके हाथों में गजरा थमाकर चले जाते हैं। दीपान्नीता हाथों में गजरा पकड़ कर हतवाक सी रंजन दा को जाते देखती रहती है, और सोचती है ये क्या कह कर चले गए !--- " गजरा लगाने से मैं अच्छी दिखुंगी या गजरा लगाने से उन्हें खुशी मिलेगी ? " -- इसी सोच में खड़ी थो की रीना के आवाज ने उसका ध्यान भंग किया। ---- " क्या हुआ, गजरा हांथ में लेकर क्यूं खड़ी है, क्लिप नहीं ं है क्या ? ला मैं तेरे बालों में लगा देती हुं। " दीपान्नीता अपने आपको संभालते हुए कहती है, " हां, क्लिप बालों में ही लगा है। "

  बाराती जाते समय बस में खुब हंसी मजाक हुई। वंहा लड़की वालों ने बारातियों का स्वागत बहुत अच्छे से किया था। पर दीपान्नीता के मन में थोड़ा सा दुःख था,क्यूं की इस सफर में उसे रंजन दा का साथ नहीं ं मिला। रंजन दा दुल्हा के साथ गाड़ी में गया था और रात को रंजन दा के साथ वंहा रहे गये।

दूसरे दिन सुबह से, शाम को नई बहू की स्वागत की तैयारी में सब व्यस्त थे। शाम को बहुत धुम-धाम से, विधिवत नई दुल्हन का स्वागत हुआ। फिर अलग अलग रसम के बाद सबसे परिचय पर्व पूरी हुई। रात को भैया के कमरे में,गप्पे, हंसी-मजाक के साथ साथ रीना और दीपान्नीता की, नई दुल्हन के साथ अच्छी दोस्ती हो गई।

दूसरे दिन सुबह बाहर बगीचे में कुर्सी लगाकर भैया, रंजन दा और काका बैठकर बातें कर रहे थे। इतने में दीपान्नीता उन लोगों के लिए चाय लेकर आते आते काका की बात उसके कानों में पड़ती है। काका रंजन दा से कज्ह रहे थे," हां, तो रंजन तुम्हारे दोस्त की तो अब शादी हो गई, तुम कब शादी कर रहे हो?" तभी भैया बोल पड़े, "अरे काका, वो तो ब्रम्हचारी है। शादी नहीं ं करेगा। " काका भौंहे सिकोड़ कर पूछते हैं, " क्या - - - क्या ये सच है ! ऐसा क्यूं ?"रंजन एकदम से जवाब देते हैं, " अरे नहीं ं नहीं  काका, वो तो मजाक कर रहा है। ऐसा कुछ भी नहीं ं है। " काका मुस्कुरा कर कहते हैं, "अच्छा तो ये बात है !" भैया भी मजाक की मुड में थे । रंजन दा को छेड़ते हुए कहा, "मतलब, अचानक ब्रम्हचार्य छोड़ दिया ! क्या बात है ! कोई मन को भा गई है क्या ?" दीपान्नीता और खड़े न रहकर आगे बढ़ कर उन लोगों को चाय देते हुए कहती हैं, " काका, आप लोगों की चाय । और भैया, चाची जी आपको अंदर बुला रही है। " भैया कहते हैं, "हां, बोल जा कर, चाय पी कर आता हूं। " अपने शादी को ले के, रंजन दा क्या जवाब देते हैं,ये सुनने के लिए दीपान्नीता का मन व्याकुल हो उठा। इसी लिए वो छुप कर उनकी बातों सुनने लगी। काका रंजन दा को कहते हैं, "अगर तुम किसी और को पसंद करते हो तो ठीक है, नहीं ं तो ये लड़की बहुत सुलझी हुई अच्छी लड़की  है। सुंदर, सुशील और समझदार भी है। तुम कहो तो इससे तुम्हारे रिस्ते की बात चलाऊ ?" भैया एकदम से उछल पड़ते है,"रंजन तु कहे तो आज ही इस लड़की से तेरा रिस्ता पक्का कर देता हूं। बस सिर्फ मां को एकबार बताने से समझें रिस्ता पक्का। मां तो इसकी तारीफ करते करते थकती नहीं ं। " रंजन दा का जवाब सुनने से पहले रीना वंहा आ जाती है। --"अरे तु यहां खड़ी है ! में कब से तुझे ढुंढ रही हूं। नई भाबी तुझे बुला रही है, चल । "--- कह कर हाथ पकड़ कर खींच ते हुए वहां से ले जाती है।

शाम को पार्टी की तैयारी चल रही थी। नई दुल्हन को तैयार करने की जिम्मेदारी दीपान्नीता और रीना पर था। नई दुल्हन को तैयार करके जब उन्होंने खुल तैयार होने के लिए जाने लगे,तभी वंहा रंजन दा आये और उनकी और देख कर कहने लगे," ये क्या ! तुम दोनों अभी तक तैयार नहीं ं हुए!" रीना कहती हैं, " क्या करे, अब तक नई दुल्हन को तैयार करने में व्यस्त थे । अभी हम तैयार होने जा ही रहे है। " रंजन दा ने कहा, " जल्दी से तैयार हो कर आओ। नई दुल्हन के साथ तुम दोनों का फोटो खींचना है। बाद में मौका नहीं ं मिलेगा। इसलिए जल्दी तैयार हो के आ जाओ। " ---- " बस अभी आते है " रीना ने कहा। दोनों तैयार होने चले जाते हैं। दीपान्नीता तैयार हो कर आ ही रही थी, की दीपक की मां ने उसे कुछ काम सौंप दिया। दीपान्नीता उसी में उलझ गई । इधर रीना वक्त पर पहूंच गई। रीना को अकेले आते हुए देखकर रंजन ने पूछा," तुम अकेले ! दीपा कंहा?" रीना आश्चर्य होने की नाटक करते हुए -- " दीपा ! ये दीपा कौन है ? "रंजन एकदम बेताबी से कहते हैं, " अरे वो - - - वो लड़की, दीपक का दोस्त, क्या नाम है उसका !" रीना झट से बोल पड़ती है, "वो तो दीपान्नीता है। " नई भाबी भी मुस्कुरा कर कहती हैं, " क्या बात है रंजन दा, अपने उसका नया नाम करन किया है क्या ?" रंजन दा कहते हैं,"इतना बड़ा नाम से कोई बुलाता है क्या ? " इतने में दीपान्नीता चाची जी का दिया हुआ काम सुलझाकर वंहा पहूंच जाती है। उसके आते ही रंजन दा ने उन तीनों की बहुत सारे तसबीर खींचे। अब दीपान्नीता पहली बार रंजन दा से कुछ कहती हैं । ----- " एक एक फोटो हमे भी मिलेगा न ?" रंजन दा कहते हैं,"हां हां, दीपक के हाथों भेंज दुंगा। " रंजन के जाने के बाद, रीना और नई भाबी, दीपान्नीता को रंजन के नाम लेकर छेड़ने लगते हैं। उसे कहते हैं, रंजन ने उसका नया नाम भी दिया है। ये सब सुन सुनकर दीपान्नीता को बिल्कुल बुरा नहीं ं लगता है। क्यूं की रंजन की मन में क्या है, उसे पता नहीं ं ! पर वो तो मन ही मन रंजन से प्यार कर बैठी है।

 शादी का माहौल खतम हो गया । अब सब अपने अपने घर जाने की तैयारी में लगे हैं। फिर कब किस से मुलाकात होगी पता नहीं ं। आज सुबह से ही रंजन दा दिखाई नहीं ं दिया। शायद इतने दिन छुट्टी के बाद आज आफिस गये है। दीपान्नीता घर लौटने के पहले एकबार रंजन दा से मिलना चाहती थी। बात होती या नहीं ं, सिर्फ एक नजर देख लेती। लेकिन वो भी नहीं ं हो पाया। इसी लिए दीपान्नीता व्यथित मन में घर लौट आई।

  इसके बाद कई महीने बीत गए दीपान्नीता को दीपक के घर जाना नहीं ं हुआ। जिस दिन भैया आ कर भाबी को अपने साथ ले गये, उस दिन दिपान्नीता भाबी से मिलने स्टेशन गई थी।  मन में आशा था की वंहा रंजन दा भी मिलेंगे। लेकिन बातों बातों में पता चला की रंजन दा आफिस के काम से कंही बाहर गए हैं। रंजन दा से मिलने के लिए उसकी मन इतना व्याकुल हो रहा था की, कई बार सोचा, दीपक को अपने मन की बात बता दे । लेकिन पता नहीं ं क्यूं काफी कोशिश के बावजूद बता नहीं ं पाई। जब ऐसे ही उलझन में फंसी हुई थी, उसी समय एक दिन दीपान्नीता की पिताजी बहुत खुश हो कर कहते है की उनके एक दोस्त ने अपने लड़के के लिए दीपान्नीता से शादी का प्रस्ताव दिया है । ये खुश खबर सुनते ही घरवालें सब खुश हो गये । क्यूं की ये दोस्त के परिवार से इन परिवार के बहुत पुरानी रिस्ता,  जान पहचान ओर आना जाना भी है। लड़के भी इंजीनियर और अच्छा स्वभाव की हैं। जब सभी ने एकसाथ ये रिस्ते के लिए हां कह दिया तब दीपान्नीता के पिताजी ने उसकी मां से कहा, ----" एक बार दीपान्नीता से पूछ तो लो । इस शादी के लिए् वो तैयार है या नहीं । " अब क्या जवाब देगी दीपान्नीता ! कैसे कह पायेगी कि वो किसी और को पसंद करती है ! क्यूं की जिसको वो चाहती है, उसका मन की बात तो दीपान्नीता को पता ही नहीं ं चला। पता चलने का कोई मौका भी उसे नहीं ं मिला।  इसी लिए उसे पूछने पर वो कूछ बोल ही नहीं ं पाई । उधर दीपान्नीता चुप रहने से सबको लगा वो शरमा रही है। और उसके मौनता को संम्मति मान कर शादी तय हो गई।

  अब सुरु हुआ दीपान्नीता का अपने आप से लड़ाई। किसी एक से प्यार और किसी दूसरे से शादी ! इतना आसान नहीं ं होता। एकबार किसी को दिल देने के बाद(भले वो उसे चाहते या नहीं , जाने बिना ), उसको भुला देना, मन से निकाल देना संभव नहीं ं होता। फिर भी उसे ये करना ही पड़ेगा, घरवालों की खुशी और पिताजी की सम्मान के लिये। ये था उसकी जिंदेगी का सबसे बड़ा इम्तीहान।

देखते देखते शादी का दिन पास आने लगा । शादी का खरीद दारी सुरु हो गई, पत्रीका भी छाप कर आ गया, लेकिन दीपान्नीता को जैसे इन सबसे कोई मतलब ही नहीं । खरीद दारी के समय जब उसे अपने पसंद के चीजे खरीद ने के लिए घर वालें उसे साथ चलने को कहते है, तो वो, " मुझे जाने की क्या जरुरत ? आप लोगों की पसंद ही मेरा पसंद है " कह कर जाने से इनकार करते है । आसली में वो इन सब खुशी मे सामिल नहीं ं हो पा रही थी। पर जब शादी उनकी है,तो उन्हे सामिल तो होना ही पड़ेगा। अखरी में एक दिन उसके पिताजी कहते है, " अपने दोस्तों को निमन्त्रन पत्रीका देने तुम जाओगी,या उसके लिये भी हम लोगों को ही जाना पड़ेगा ?"तब जा के दीपान्नीता की होस आया। कहा, " नहीं , मैं चली जाऊंगी नमिता को ले कर । " 

नमिता, दीपान्नीता की सबसे करीबी दोस्त है। शादी को ले कर दीपान्नीता की हावभाव, शादी हर बात पर इतनी चुप सी रहना, उसे कुछ आजीब सा लगा । पर वो पूछने से, दीपान्नीता बात को टाल देती है, और काम की बात मतलब नमिता को साथ ले कर दोस्तों को निमत्रन पत्रीका देने के लिए कब किस के घर और कैसे जाना है ये तैयार करते है।

 उस दिन दीपान्नीता पहली बार अपनी शादी के कोई काम के लिए बाहर जा रही थी। नमिता के साथ तय हुआ की, नमिता अपने संगीत के कला से सीधे शाम ४ बजे बस स्टैन्ड आयेगी, और तभी दीपान्नीता भी वंहा पहुंच जायेगी, फिर दोनो मिलकर सबसे पहले रत्ना के ससुराल पत्रीका देने जाएंगे। दीपान्नीता ठीक समय पर एक रिक्सा ले कर बस स्टैन्ड पहुंच जाती है । पहुंच ने के बाद घड़ी देख कर पता चलता है की वो १५ मिनिट पहले पहुंच गई। अब सही समय के लिये इन्तजार करना ही पड़ेगा। इसीलिए एक पेड़ के नीचे जा कर खड़ी हो गई। अचानक पीछे से किसी पुरूष कंठ की आवाज से चौंक जाती है,----- " क्या बात है दीपा, इतनी धूप मे अकेले यंहा क्यूं खड़ी हो ? " दीपान्नीता को आवाज कूछ पहचानी सी लगी । और उसे 'दीपा। ' कहकर तो सिर्फ ---- पीछे मुड़ कर रंजन दा को देख कर उसका मन पुलकित हो उठता है। " अरे आप यंहा ?"लेकिन दूसरी ही पल उसकी खुशी गायब हो जाती है। सोचती है ----" अभी मुलाकात होना जरुरी था क्या !?" रंजन दा फिर से पूछते हैं, " बस का इंतजार कर रही हो? कंही जाना है क्या ? " दीपान्नीता थोड़ी मुस्कुरा कर जवाब देती है," हां, एक सहेली के घर जाना है । मेरी पड़ोस की एक सहेली है, उसके साथ । उसी का इंतजार कर रही हूं । "रंजन हंसते हुए कहते हैं, " धूप में खड़े रहने के बजाय चलो उस चाय के दुकान पर बैठकर एक एक कप चाय पीते है और तुम्हारे सहेली का इंतजार भी कर लेते हैं। " अचानक रुककर पूछते हैं, "मेरे साथ वंहा बैठ कर चाय पीने में कोई एतराज़ तो नहीं ं न ?" दीपान्नीता रंजन दा को इनकार नहीं ं कर पाती , कहती हैं, "अरे नहीं ं नहीं ं । पर मेरी सहेली आने पर मुझे ढुंढेगी । " रंंनज दा कहते हैं, " वो आयेगी तो हम उसे  वंहा से देख पायेंगे। " फिर दोनों बातें करते करते चाय की दुकान पर बैठते है। रंजन दा कहते हैं, " तुम बहुत दिनों दीपक के यंहा नहीं ं आई। वैसे मुझे भी काम के सिलसिले में बाहर जाना हुआ था । " दीपान्नीता बोलती है, " हां सुना मैने । काम से लौट कर कब आये ? " रंजन दा कहते है, " अगले हप्ते। " फिर दीपान्नीता की आंखों में देखते हुए कहते है," दीपा, तुम्हारी साथ एक जरुरी बात करनी थी । उस समय शादी के भीड़ भाड़ मे तुमसे ठीक से बात नहीं ं हो पाई। " दीपान्नीता का दिल जोड़ जोड़ से धड़कने लगा। कांपती आवाज में उसने कहा, " कहिए । " रंजन कहते है, " अब जो भी मैं तुमसे कहुंगा उसे सुनकर अगर तुम्हे अच्छा न लगे तो इनकार कर देना । पर नाराज मत होना, और मुझे गलत मत समझ न। " दीपान्नीता रंजन दा की ओर एकरक देखती है, फिर होश आते ही आंखे फेर लेते हुए कहती है, " नहीं , नाराज क्यूं होऊंगी ? आप कहिए न। " --- " मैं क्या कहना चाहता हूं क्या तुम नहीं ं समझ पा रही हो ? " अब दीपान्नीता करीब कांपने लगी । उसका गला भर आया । रंजन की ओर देख नहीं ं पा रही थी। नजरें नीचे करके, सिर हिला कर उसने 'ना' में जवाब दिया । अचानक रंजन दीपान्नीता का दोनों हाथ अपने हाथों में ले कर कहता है, " मैं तुमसे प्यार करता हूं दीपा । तुमसे शादी करना चाहता हूं। तुम्हे कोई आपत्ती तो नहीं ं ? " दीपान्नीता अपने आपको रोक नहीं ं पाई । रंजन दा के हाथों से आपना हाथ छुड़ाकर दोनों हाथों से चेहरा छुपा कर रो पड़ी। बड़ी मुश्किल से कह पाई, " अपने बहुत देर कर दी। अब कुछ नहीं ं हो सकता । " कहते कहते टेबल पर एक पत्रिका रख कर करीब दौड़ते हुए रास्ते में आकर, एक रिक्स लेकर घर वापस चली आती है। रंजन हतवाक सा दीपान्नीता को जाते देखता रहता है। उसे ' कहां देर हो गई ' ये समझ ने में, रंजन को थोड़ा वक्त लगा।

  घर पर दीपान्नीता को इतनी जल्दी लौटते देख, सब आश्चर्य हो गये। एक के बाद एक सवालों का बाण,"क्या हुआ ! गई नहीं ं ? नमिता आई नहीं ं क्या? रास्ते में कुछ हुआ क्या? " ---- इत्यादि इत्यादि । दीपान्नीता किसी के सवालों को कोई जवाब नहीं ं दिए बिना ही दौड़ कर अपने कमरे में जाकर दरवाजा अंदर से बंद कर लेती है। फिर सीधा बिस्तर पर गिर कर फूट फूट कर रो पड़ती है। घर के लोगों को कूछ समझ में नहीं ं आता है। बुला बुला कर सब परेशान हो जाते हैं, पर कोई जवाब नहीं ं मिलता।  इतने में बस स्टैंड पर दीपान्नीता नहीं ं मिलने से नमिता भी घर आ पहूंची। और सब सुनते हुए वो भी आश्चर्य हो जाती है। फिर सब मिलकर जोड़ जोड़ से दरवाजा पिटने लगते हैं। और ---" दरवाजा खोल दरवाजा खोल " --------

जोड़ जोड़ से दरवाजा पिटने लगते है और ---- " दरवाजा खोलो, दरवाजा खोलो " ---- दरवाजा  पिटने के आवाज से दीपान्नीता होश में आती है।  अतीत के पन्नों को बंद करके वापस वर्तमान में लौटती है। धीरे धीरे अपने को संभाल ते हुए उठकर बैठती है। अपने पल्लू से आंसू पोंछती है । फिर आकर दरवाज़ा खोलती है। सामने बेटे को खड़ा पाती है, और उसके पीछे सजल । दोनों ही चिंतित और उद्विग्न सा खड़ा है। वो दरवाजा खोलते ही," क्या हुआ मां ! तुम्हारी तबियत खराब है क्या ? दरवाजा क्यूं नहीं ं खोल रही थी? बाबा कह रहे थे -----" " कूछ नहीं ं हुआ बेटा, सिर्फ सिर में दर्द हो रहा था । और मैं थोड़ा सो गई थी। इसी लिए दरवाजा खोलने में देर हुआ। अब मैं ठीक हूं। आगे और कूछ नहीं ं होगा । अब तो मेरे बेटे की शादी खुब धुमधाम से ही होगा। " कहते कहते अपने बेटे को गले लगा लेते है। सजल आश्चर्य हो कर दीपान्नीता को देखते ही रह जाते है।

Original Bengali story written by 

Anuradha Bhattacharya

(Nagpur)

Translated in Hindi by

Anima Karmakar


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