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ANURADHA BHATTACHARYA

Others

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ANURADHA BHATTACHARYA

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नया एहसास

नया एहसास

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क्रिंग क्रिंग. क्रिंग क्रिंग  क्रिंग क्रिंग

बाहर के कमरे में मोबाइल बज रहा है पर कोई उठा नहीं रहा। इसीलिए काफी गुस्से से नंदिता, ( सृजा की माँ,) जो की किचन में बेसन की पकोड़ा बना रही थी, बेसन भरे हाथ लेकर बरबड़ाती हुई बाहर के कमरे मे आती हैं" ये लड़की भी ना , न जाने कहाँ चली जाती हैं। एक पल घर पर उसके पैर नही टिकते। दिन भर महल्ले में घूमती रहती है। फोन कहीं पड़ा रहता हैं और वो खुद कहाँ होती है पता ही नहीं रहता" ये कहते हुए बायें हाथ से फोन उठाती हैं " हेलो.....ओ दीपु। अरे ! क्या बताऊँ बोल। ये लड़की न जाने कब सुधरेगी। घर पर रहती ही कब है। और कहां,  दिन भर अड़ोस-पड़ोस में घूमती रहती है। अरे जाना हैं तो मोबाइल साथ ले जा....पर नहीं। कोई खास काम था ? कुछ कहना था उस से ? अच्छा बोल दूँगी।"

कहते हुए फोन रखकर बड़बड़ाती हुई किचन में लौट जाती हैं। कुछ पकोड़ा कढाई में डाली, इतने में door bell बजता है। " उफ, फ़िर कोई आया है।परेशान हो गयी हूँ मैं" कहते हुए गैस को थोड़ा कम करके किचन से बाहर निकलने ही वाली थी, सामने सृजा की सहेली सुमि किचन के सामने आके खड़ी होती है।

" बाहर का दरवाज़ा खुला ही था, मेरा मतलब टिकाया हुआ था, मैं समझी बंद है इसीलिए बेल बजाई थी। सृजा ऊपर के कमरे में हैं क्या?"

" कौन-से कमरे में! ये तो उसे ही पता। पर इस घर के किसी भी कमरे में नहीं है। देख जाके किसी के घर में जाकर बैठी है। दो दिन बाद जिसकी शादी है उसकी अभी भी घर घर घूमने की आदत नहीं गयी। पड़ेगी पड़ेगी, शादी के बाद सास से ऐसी गालियाँ खायेगी ना, तब समझ में आयेगा। और मुझे भी कितनी बातें सुननी पड़ेगी उसके ससुराल वालों से उसके इस महल्ले महल्ले घूमने की आदत को लेकर।

सुमि नंदिता की बातें सुनकर और गुस्सा देखकर हँसने लगती हैं। नंदिता उसे कहती हैं "तू हँस रही है? देखना उसकी इस महल्ले महल्ले में घूमने की आदत के कारण कितनी तकलीफ़ लिखा हैं उसके तकदीर में।"

सुमि कहती हैं..."ससुराल के पड़ोस में वो किसको जानती हैं जो उनके घर जाएगी गप्पे लड़ाने ? आप बेकार में ही डर रही हो।"

बात तो उसकी सही थी और नंदिता को पता भी पर मन का डर बना ही रहा। बोली " क्या पता...उसकी आदत ही ऐसी हैं...इसके उसके घर जा कर गप्पे ना मारा तो उसका खाना ही हज़म नहीं होता। देखना दो दिन में वहाँ भी दो चार लोगों को जोड़ लेगी और फ़िर लग जाएगी गप्पे मारने।

घूम फिर कर घर लौट कर सृजा माँ की आखरी बात सुन लेती है। उसका अड़ोस-पडो़स में घूमने को लेकर माँ हमेशा नाराज़ रहती है। लेकिन वो माँ की नाराज़गी पर ध्यान नहीं देती। बल्की उसको मजा आता है।

घर लौट कर माँ की आवाज़ कानों में पड़ते ही, कहती है "अकेले अकेले ही क्या बड़बड़ा रही हो?" नंदिता कुछ बोलती उसके पहले ही सुमि किचन से बाहर आते हुये कहती है "कहाँ थी अब तक?"

अरे ! तू कब आई ? 

बहुत देर हो गई आकर। तू अब तक कहाँ थी ?

अरे रत्ना की वहाँ गई थी। चल उपर की कमरे में।

तू अभी भी सपना, रत्ना के घर घूमती रहेगी? ससुराल जाकर क्या करेगी? वहाँ तो तुझे ये लोग नहीं मिलेंगे ना। बोल,  तब क्या करेगी ?

तब की तब देखूंगी। अभी तो उपर कमरे मे चल। चल कर गप्पे मारते है।

नंदिता से और रहा नहीं गया। गुस्से से किचन से बाहर आकर कहती है" हाँ , जाओ उपर, लेकिन मेहरबानी करके अपना फोन साथ लेकर जाओ। इधर - उधर घूमते समय फोन साथ में नहीं ले जा सकती?"

सृजा ऊपर अपने कमरे में जाने के लिये सीढ़ी चढ़ने ही वाली थी की माँ की बात सुनकर वहीं रुक जाती है।

" दीपु का फोन आया था। फोन करने को कहा है। कह रहा था जरूरी बात करनी है। "

" हाँ  हाँ, ठीक है बाबा --" कहते हुए माँ के पास जाकर, गले से निपट कर प्यार से कहती है" मेरी प्यारी माँ।" और फिर हँसते हुए अपना फोन और सुमि को लेकर उपर अपने कमरे मे चली जाती है।

अगले हफ्ते सृजा की शादी थी। खूब धुम- धाम और बाजे - गाजे के साथ उसकी शादी हो गई।

सृजा की सहेलियाँ भी दिब्बेन्दु ( सृजा के पति ) से मिलकर बहुत खुश है। क्योंकि दिब्बेन्दु भी सृजा की ही तरह बहुत हँस मुख और मिलनसार है।

हमेशा खिलखिलानेवाली सृजा आज दोपहर से ही बहुत चुप चुप सी है। एकदम जैसे शान्त हो गई है। सृजा के अंदर एक डर, एक घबराहट सी हो रही है। मन में उथल-पुथल मचा हुआ है। अजीब सा एक अहसास जो किसी से कह नहीं सकती।

इसी तरह दोपहर बीत कर शाम हो गई। विदाई की वक्त हो गया है। सबका मन एकदम से भारी हो गया है। विदाई की पूर्व आशीर्वाद का वक्त आ गया। सृजा की माँ आशीर्वाद देते वक्त इतना रो पड़ी की उनको संभालना ही मुश्किल हो गया था। लेकिन सृजा एकदम नहीं रोई। अपने आपको पक्की तरह संभालकर रखा। 'कनकान्जली' की रस्म वो नहीं निभाएगी,  उसने पहले ही बता दिया था। इसीलिए उस रस्म की बात ही किसी ने नहीं उठाया।

विदाई की रस्म पूरी हो गई, अब दिब्बेन्दु का हाथ पकड़कर ससुराल जाने की बारी। घर से बाहर आकर पीछे मुड़कर घर के चारों ओर देखते हुए दिब्बेन्दु के साथ गाड़ी में जाकर बैठती है। एक आकर्षण उसे पीछे खींच रहा था। जोर से रोना आ रहा था। सब कुछ छोड़ जाने का दर्द उसके हृदय को खाली कर रहा था। जैसे सब कुछ छूट जा रहा है।

गाड़ी में बैठ ने के बाद भी सृजा बार बार बाहर की ओर देख रही थी। उसकी आँखें जैसे किसी को खोज रही हो, शायद अपनी माँ को। सृजा को इस तरह से झांकते देखकर उसके मामा का लड़का दीपु पास आकर सृजा का हाथ पकड़ कर कहता है, "चिन्ता मत कर, तेरे पीछे पीछे हम भी आ रहें है। देखना कल शाम तक हम तेरे यहाँ पहुँच जायेंगें। " 

अगर और कोई दिन होता तो सृजा दीपु के कान मरोड़ कर बोलती ---"मैं कोई छोटी बच्ची हूँ क्या? " लेकिन आज वो चुप रही, कोई जवाब नहीं दिया।

गाड़ी चल पड़ी , शंख की आवाज़ धीरे धीरे धुँधली होती जा रही थी। अपना मुहल्ला छोड़ कर गाड़ी तेजी से बड़ी सड़क पर आ गई। सृजा अभी भी पीछे मुड़कर देख रही थी। अचानक उसने अपने हाथों पर किसी की हाथों की स्पर्श महसूस किया। पलटकर देखते ही देखा की दिव्य उसका हाथ अपने हाथों में ले रहा था। सृजा उसकी ओर देखते ही दिव्य मुस्कुराते हुए उसके कानों में फुसफुसाते कर कहता है-- क्या हुआ श्री, बहुत बुरा लग रहा है?  मन बहुत उदास है? मेरे साथ जाना अच्छा नहीं लग रहा हैं? श्री कुछ नहीं कहती है। शर्मा कर मुस्कुराते  हुए आँखें नीचे कर लेती है। रास्ते भर और कुछ सोच नहीं पा रही थी। सिर्फ उसके पास बैठे दिव्य का प्यार भरा स्पर्श सृजा चुपचाप महसूस कर रही थी।

कब इतना लंबा रास्ता ख़तम हो गया पता ही नहीं चला। जब ससुराल के गेट के सामने गाड़ी आकर रुकी तब सृजा को होश आया। वो जल्दी से दिव्य के हाथों से अपना हाथ हटा लेती है।

बहुत धूमधाम से बहू का स्वागत किया गया। गृह प्रवेश की रस्म पूरी होते ही सृजा को उसकी ननदें और जेठानीयाँ घेर लेती है। उसे उसके कमरे मे ले जाते है। लेकिन उसके निगाहें दिव्य के ही ढूंढती रहती है। सृजा के ओर उसकी एक जेठानी देखकर कहती है -- " क्या हुआ, किसे ढूंढ रही हो? आज नहीं मिल पाओगी। आज ' काल रात्रि ' है।" सृजा की एक ननद हँसते हुये कहती है -- "भाभी, बस आज रात हमलोगों के साथ बर्दाश्त कर लो। फिर तो कल से जिन्दगी के हर रात भैया के साथ ही बिताओगी।" सृजा कोई जवाब नहीं देती। शर्मा कर मुस्कुराते हुए सिर नीचे करके बैठी रहती है। दिव्य के यहां भी बड़ी धुमधाम से रिसेप्सन, मुँह देखाई की रस्म सब पुरी हो गयी। देखते-देखते सृजा को ससुराल में आये सात दिन भी बीत भी गया। मेहमान भी सब अपने अपने घर चले गये। अभी भी सृजा ससुराल में नई दुल्हन ही है।

 सृजा माँ के कहे अनुसार यथा संभव शान्त रहने की कोशिश करते है। न जोर से हँसती है और न ऊंची आवाज़ से बात करती है। ये सब उसके लिये बहुत तकलीफ़देह है। उसे खुद ही समझ में नहीं आ रहा था कैसे वो इतनी शान्त होकर इतने दिन बिता दिये।

कल शाम को सृजा बालकनी में खड़े होकर सामने के मैदान में बच्चों को खेलते हुए देख रही थी। कुछ लड़के - लड़कियाँ बैडमिन्टन खेल रहे थे देखकर सृजा को भी बहुत मन कर रहा था। लग रहा था दौर कर जाके उनके साथ खेलना शुरू कर दूँ। पर नहीं, माँ की हिदायत याद आ गई। अपने आपको संभाल कर चुपचाप खड़ी रही।

उसके पहले दिन की ही बात है, सृजा नहाकर बालकनी में खड़े होकर बाल सुखा रही थी। तब पड़ोस की एक लड़की उसको देखकर मुस्कुराती है। सृजा भी जवाब में मुस्कुराती है। उसकी बहुत इच्छा हो रही थी की उस लड़की को बुलाकर बातें करे, पर तभी माँ की बात याद आती हैं, --"ससुराल में जाकर कोई नई सहेली मत बना लेना। अकेले अड़ोस-पड़ोस मे मत चली जाना।" इसीलिए सृजा उस लड़की के साथ दोस्ती करने की इच्छा होते हुये भी मन मानकर अन्दर चली जाती हैं।

सृजा को ससुराल में आकर काफी दिन बीत गये। ससुराल के नये माहौल में आपने आपको ढालने की पूरी कोशिश कर रही थी। वो बहुत खुश थी इस माहौल में, क्योंकि उसके ससुराल में सब बहुत अच्छे थे, खासकर उसकी सास। फिर भी बाहर घूमने की आदत को भूला नहीं पा रही थी। बाहर घूमने के लिये कभी-कभी मन बहुत बेचैन हो उठता था।

ऐसी एक शाम उसकी सास ने आकर कहा-- " बहू चलो आज मैं तुम्हें अपनी सहेलियों से मिलाने ले चलती हूँ।" यह सुनकर सृजा को बहुत आश्चर्य हुआ। वो सोच में पड़ गई --अचानक सहेलियों से मिलाने क्यों ले जाना चाहती है? उनकी सहेलियाँ पार्टी में नहीं आई थी क्या? लेकिन उसने कोई सवाल नहीं किया। मन की मन बहुत खुश भी हो गयी। इतने दिनों में बाहर जाने को जो मिल रही थी।

जितनी खुश हो कर वो सास के साथ उनकी सहेलियों के यहां गयी थी, वहाँ जाकर उतनी ही 'बोर' हो गई। क्योंकि एक तो, सासुमाँ की सहेलियाँ बीमार थी, कोई बिस्तर में पड़ी हुई थी तो किसी के घुटने के दर्द के कारण चल फिर नहीं सकती थी, उपर से सृजा के साथ बात करने के लायक उसकी उम्र की कोई नहीं था। करीब एक घंटे इधर-उधर की बातें करने के बाद जब सृजा और उसकी सास घर लौट रही थी तब एक मजेदार घटना हुआ।

वो दोनों घर के करीब पहुँचे ही थे की उसकी छोटी ननद उन्हें देखकर दौड़ते हुए उनके और आ रही थी। लगता है वह पास में ही कहीं उन दोनों के लिए इंतज़ार कर रही थी।

सृजा ननद को देखकर मन ही मन ये सोचकर बहुत खुश हो जाती हैं की उसकी ननद उसको लेकर कहीं घूमने जाना चाहती है। लेकिन नहीं। ऐसा कुछ भी नहीं था। उसकी छोटी ननद दौड़ते हुए अपनी माँ के पास आकर कहती है" माँ तुम सामने के दरवाज़े से अन्दर मत जाओ। पीछे के दरवाज़े से चुपचाप घर के अंदर जाना। मैं पीछे का दरवाज़ा खोलकर आई हूँ। क्योंकि पापा बहुत देर पहले ही आँफिस से घर आ गये है। जैसे ही उन्हें पता चला की तुम भाभी को लेकर तुम्हारी सहेलियों के घर घूमने निकली ही तो पापा बहुत नाराज़ हो गये है। कहे रहे थे  जैसे तेरे माँ की आदत अड़ोस-पडो़स में घूमने की, अब बहू को भी वैसे ही आदत डाल देगी। फिर क्या, दोनों को पड़ोस में जाकर गप्पे मारने से फ़ुरसत ही नहीं मिलेगी। "

ननद के मुंह से ये बातें सुनकर सृजा की आँखें बड़ी बड़ी हो गई।आश्चर्य चकित होकर कभी ननद को कभी सास को देखती रही। और फिर सबकुछ भूलकर स्वभाव के मुताबिक ठहाका मारकर हँस पड़ती है। उसे अपनी माँ की हिदायत याद नहीं रहा। वो दिल खोलकर हँसने लगी। अचानक उसका ध्यान सास और ननद पर पड़ा, दोनों आश्चर्य होकर उसे देख रही थी। जल्दी से सृजा अपने को संभाल लेती है। तुरन्त सॉरी कहकर चुप हो जाती है। पर उसकी सास और ननद दोनों उसके हँसने का बुरा नहीं मानते, बल्की वो दोनों भी हँस पड़ते हैं। फिर तीनों हँसते हुए पीछे के दरवाज़े से छुपकर घर के अन्दर आते है।

सृजा से और रहा नहीं गया। दूसरे ही दिन उसे पग फेर के लिये मायके जाना था। लेकिन तब तक के लिये भी वो इंतज़ार नहीं कर पा रही थी। इतनी बड़ी खबर माँ की सुनाये बिना उससे रहा नहीं जा रहा था। इसीलिए घर लौट कर दरवाज़ा बंद करके माँ को फोन लगाती है।

उस और से माँ के हैलो बोलते ही सृजा फोन पर ही हँसते हुए लोट- पोट हो जाती है। माँ आश्चर्य होकर पूछती है -- "क्या हुआ ! इतनी जोर जोर से क्यों हँस रही है? तुझे मैंने मना किया था ना -- ससुराल में इतने जोर से मत हँसना। "

सृजा उसी तरह से हँसते हुए कहते हैं---" माँ तुम कहती थी मेरे अड़ोस-पड़ोस में घूमने, गप्पे मारने की आदत को लेकर सास मुझे डाटेंगी, गुस्सा करेंगी , लेकिन यहाँ तो सब उल्टा हो गया। तुम खामोखा डरती थी और मुझे भी डराती थी। तुम्हें पता भी है मेरी सास, कहते हुए फिर हँसने लगती है।

उसके माँ अधैर्य होकर पूछती है" अरे हुआ क्या-- कुछ बोलेगी भी, या सिर्फ हँसते ही रहेगी " सृजा हँसते हुए कहती है" मेरी सास, मुझे मेरी आदत को लेकर क्या डांटेंगी, वो तो खुद ही मेरे जैसा मुहल्ले में रोज घूमती है। उनकी भी पड़ोस में जाकर अपने सहेलियों के साथ गप्पे मारने की आदत है। "

माँ को तो यकीन नही हो रहा था। बोली क्या---या ----या----

सृजा हँसते हँसते कहती है "हाँ माँ, सच कह रही हूँ मेरी सास भी रोज मुहल्लों में घूमती है। उनकी भी मेरे जैसी ही आदत है।"

अब सृजा के मन मे ससुराल का डर एकदम निकल जाता है। वो निडर होकर बिन्दास रहने लगी।                      


        


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