अनजान सफर
अनजान सफर
माँ तुम्हारी बचपन में दी सीख का हमेशा मुखौटा पहना है, कि एक स्त्री तब ही तक खुबसुरत कह लाई जाती है, जब तक बिना प्रतिकार किये सब कुछ सहती है। अपनी पीड़ा, बेचैनी मन में ही दबा, प्रेम वश उफ्फ तक ना करे। प्रेम करने का गुनाह किया था मैने। मुझ जैसी अलहड़ लड़की उस की मीठी बातों को प्रेम समझ बैठी। उसे दुनिया का सबसे अच्छा इन्सान समझने लगी।
आप की बातें भी मुझे बुरी लगती, उस की बातों ने न जाने क्या जादू किया था। हर तरफ प्रेम का रंग दिखता था। उस की हर बात में सम्मोहित मैं खाते, पीते, सोते, जागते उस को ना देख बेचैन हो जाती थी। मैं उस जादूगर की बातों में आ, सपनों में उड़ान भरती बिना सच्चाई जाने, एक अनजान सफर में भाग आयी थी, घर से। मैने एक घर चाहा था। कोशिश भी की थी पर वह मुझे छलता रहा।
उस की ख़्वाहिशों की पूर्ति के लिए हर रात रंग बिरंगे मुखौटे पहन कर अनेक चेहरो से रुबरू हो आपने अस्तित्व को मिटा, अपनी खोखली होती जड़ों को
देख चुप चाप देखती रही। हर रात अपने अस्तित्व को मिटा अपने विश्वास में काला धुंध उठते देखती, ज़िन्दा लाश बन इस जिस्म को लूटाती रही।
उसे देह से आज़ाद कर मैने, वो खूबसूरती का मुखौटा उतार फेका है। जो बचपन से चादर बन मन की परतों पर बिछा था। उस के जादू का सत्य जान गयी थी। जो असत्यऔर छल का दरिया था। जो मैं नादान जादू समझ बैठी थी।
आज उसने सब हद पार कर दी थी। अपने आगँन में पोषित कली को कुचलना....।
भला माँ मैं ये कैसे सह सकती थी कि अपने ही उपवन की पोषित कली को बनमाली सभी मर्यादा त्याग कर, अपने पैरो तले रौंदने, उसकी मर्यादा को भंग करने का दुस्साहस करे। ये दुनिया की कोई माँ नहीं सह सकती ।