अम्माजी का लंगर
अम्माजी का लंगर
भैया भाभी बाजार जा रहे थे। भाभी कहने लगीं, 'गुड़िया तुम भी चलो हमारे साथ। कभी कभी बाहर भी निकला करो अच्छा लगता है।' मैंने माँ की ओर देखा तो उन्होंने भी कहा, 'चली जा मन बहल जाएगा।' दोनों बच्चे भी फुदकने लगे, 'आहा बुआ भी हमारे साथ जाएगी।' अब तो उठना ही पड़ा, भाभी का हाथ पकड़ कर मैं उनके पीछे होली। मैं कार में बच्चों के साथ पीछे बैठी और भाभी आगे जबकि भैया ड्राइव कर रहे थे।
अभी गाड़ी बाज़ार से पहले वाली गली की ओर मुड़ी ही थी कि गली के मुहाने पर ही एक बड़ा सा शामियाना लगा दिखा, पता चला आगे रास्ता ही बंद है। भैया कह उठे, 'आज आगे नहीं जा सकते वापस ही जाना होगा।' बच्चे अब उदास थे पर क्या किया जा सकता था। भैया गाड़ी वापस मोड़ ही रहे थे कि मैंने सामने से आते दिख रहे एक परिचित से उत्सुकतावश पूछ लिया, 'भैया क्या हो रहा है, बड़ी रौनक लगी है।'
'दीदी आम्माजी गुजर गई आज हमने उनके नाम से लंगर लगाया है, आप भी प्रसाद ग्रहण करो।' कहते हुए उन्होंने कागज़ की कटोरीयों में दो चम्मच हलवा डाल कर हमारे हाथ पर धर दिया। वह हलवा मेरी हथेली जला रहा था।
अम्माजी चली गई! मुझे एक झटका सा लगा। अभी कुछ दिन पहले ही तो एक व्यक्ति माँ से कह रहा था, 'मांजी कोई गर्म कपड़ा हो तो देना अम्माजी के लिए चाहिए।' माँ ने भी कहा था,'अगली बार आओगे तो ले जाना ढूंढ कर रखूंगी।' पर अब वह अगली बार तो कभी आएगा ही नहीं।
अम्माजी.... कौन थीं यह अम्मजी, कहां से आईं थीं कोई नहीं जानता। एक अनचाहे अनजाने मुसाफिर की तरह एक रोज़ रेलगाड़ी में बैठ कर हमारे इस छोटे से कस्बे में चली आईं थीं, बातचीत में थोड़ी भोली सी ही लगती थीं, दुनियादारी की इतनी समझ नहीं थी उन्हें। बरसों हो गए उन्हें यहां रहते पर इस दौरान ना कोई उन्हें ढूंढने आया ना ही लिवाने। कुछ लोग तो कहते हैं कि वे एक सम्पन्न घर की परित्यक्त सदस्या थीं, परिवार द्वारा अवहेलना ना सह पाईं और यहां चली आईं।
खैर जो भी उनका अतीत रहा हो इस कस्बे में उनका वर्तमान भी बहुत अधिक सुखमय नहीं रहा। गुज़र बसर के लिए पहले तो उन्होंने कुछ समय घरेलू सहायिका के रूप में काम किया किंतु जब शारीरिक स्थिति श्रम करने लायक ना रही तो भूख मिटाने को भीख मांग कर खाना शुरू कर दिया। कोई भोजन दे देता, कोई तिरस्कार देता। उनका भोलापन अब मानसिक विक्षिप्तता का रूप लेने लगा था पर फिर भी वे किसी को हानि नहीं पहुंचाती थीं। अम्माजी बहुत शांत स्वभाव की महिला थीं, एक पटरे पर अपना बिस्तर डाले कभी यहां तो कभी वहां घूमती रहती थीं। उन्हें यूं परेशान देख कर कुछ भले लोगों ने उन्हें एक सराय के बाहर बनी टूटी सी गुमटी में रहने की जगह दे दी और अम्माजी ने वहीं डेरा डाल लिया जो उनके देहांत के बाद ही उठा।
घर वापस पहुंच कर मैं और बच्चे अलग अलग कारणों से उदास थे। बच्चे तो फिर भी कुछ देर में बहल गए पर मेरे मन मस्तिष्क पर पूरा दिन अम्माजी ही छाई रहीं मानो मेरे सामने ही खड़ी हों और कह रहीं हों, 'कैसी निराली रीत है इस दुनिया की, जिसे जीते जी कभी भर पेट भोजन नसीब नहीं हुआ उसी के मरने के बाद लंगर में हलवा पूरी बांटा जा रहा है।'