मैं तो वही खिलौना लूँगा
मैं तो वही खिलौना लूँगा
प्रभात का जब भी नए शहर में तबादला होता रम्या की मुसीबत हो जाती। नए शहर में हमेशा नए सिरे से गृहस्थी बसानी पड़ती है। प्रभात का काम तो मुवर्स एंड पैकर्स की मदद से सामान ठिकाने पर पहुंचा कर खत्म हो जाता पर उस ढेर के रूप में रखे सामान को घर में सैट करने का भारी काम हमेशा रम्या के नाज़ुक कंधों पर आ जाता।
पहले तो फिर भी ठीक पर इस बार तो पृथु भी साथ था। नए माहौल में उस चार साल के बच्चे मन ही नहीं लग रहा था। बीकानेर में तो आसपास के घरों के बच्चों साथ खेल भी लेता था पर यहां तो अभी तक उन्हें कोई ठीक से जानता भी नहीं था ऐसे में पृथु खेलने जाता भी तो कहां। बेचारा छोटा सा बच्चा उदास सा एक कोने में बैठा था।
रम्या अपने बेटे को उदास देख कर और भी अनमनी हो गई वह सारा काम छोड़ कर थोड़ी देर पृथु के साथ खेलने के बारे में सोच ही रही थी कि कॉल बेल बज उठी। वह जल्दी से दरवाज़े की ओर बढ़ गई। दरवाज़े पर एक साफ़ सुथरी सी बिहारी औरत खड़ी थी, कुछ देर पहले ही प्रभात का फ़ोन आया था कि मेड का इंतज़ाम हो गया है वही थी। रम्या, कमला नाम की उस महिला के साथ बात करने लगी।
कमला के साथ भी एक छोटा बच्चा सोनू था। सोनू लगभग पृथु का हम उम्र था। सोनू को देख कर पृथु के धैर्य ने उसका साथ छोड़ दिया और वह उसके साथ खेलने को मचलने लगा।
रम्या और कमला दोनों बच्चों को ले कर नीचे सोसायटी कंपाउंड में ही बने गार्डन में चली आई। वहां एक गड्ढे में बारिश का पानी इकट्ठा हो कर तालाब सा बन गया था, दोनों बच्चे वहीं खेलने लगे। सोनू कागज़ की नाव बना कर उस गड्ढे में चलाने लगा। पृथु को कागज़ की नाव बनानी नहीं आती थी उसे सोनू कि नाव बहुत अच्छी लगी, वह खुश हो कर तालियां बजाने लगा। तभी प्रभात भी आ गया, संयोग से वह आज पृथु के लिए रिमोट से चलने वाली नाव लाया था। पृथु ने भी अपने पापा की लाई नाव पानी में उतार दी पर उसका मन अभी भी सोनू की बनाई कागज़ की नाव में ही अटका था वहीं दूसरी ओर अब सोनू भी पृथु की नाव को ललचाई नज़रों से देख रहा था। पूरे दो दिन बाद पृथु को खुश देख कर रम्या और प्रभात ने राहत की सांस ली। रम्या दोनों बच्चों को ग़ौर से देख रही थी, बच्चों के हाव भाव उनके मन का हाल बयान कर रहे थे, बच्चों की मन:स्थिति देख कर रम्या को अपने प्रिय कवि सियाराम शरण गुप्त की कविता 'मैं तो वही खिलौना लूंगा' याद हो आई और वह मुस्कुरा दी।