अध्यापक की बेड़ियाँ
अध्यापक की बेड़ियाँ
वर्तमान में अध्यापक बनाना कोई सरल काम नहीं है। एक शिक्षक बनने से पहले, सौ मर्तबा सोचना पड़ता है। चार सालों के अपने टीचिंग करियर में मैनें पाया कि एक अध्यापक बनना अर्थात स्वयं को बेड़ियों में जकड़ने सा है।
सुबह से शाम तक छात्रों के बीच दिन बीताने के बाद भी अध्यापक को ग़ैर करार दिया जाता है, जब वो छात्र को सुधारने के लिए कड़े शब्दों का प्रयोग करता हो। ज़िंदगी की राह पे चलना सीखने वाले के लिए जब दूसरे ही दिन कुछ माता पिता झगड़े पर उतारू हो जाते हैं।
परिणाम स्वरूप वर्तमान में बच्चों के व्यवहार में बदलाव नज़र आने लगा है। इस तरह बच्चे अध्यापकों को दो कौड़ी का समझने लगते हैं। वो अध्यापक का सम्मान करना तो छोड़ते ही हैं, साथ ही साथ कई दफ़ा बदतमीजी पर भी उतर आते हैं।
निजी संस्थानों में तो अध्यापकों का काम इन दिनों और भी बढ़ गया है।
अब गृह कार्य केवल स्कूल डायरी में ही नहीं अपितु ऑनलाईन भी देना होता है। हर सूचना ऑनलाईन भी भेजी जाती है। इसके अतिरिक्त होमवर्क न करने पर भी अध्यापक को फोन किया जाता है।
दस दस दिन उनुपस्थित रहने के उपरांत जब बच्चा स्कूल आता है तो उसके कार्य के पतन का श्रेय भी अध्यापक को जाता है। उनुपस्थित होने के उपरांत उन दिनों का होमवर्क पूरा भेजने का एक और ज़िम्मा भी सौंपा जाता है।
कई हफ़्तो तक कार्य पूरा न करने के उपरांत अगर सुधारने के लिए अध्यापक एक थप्पड़ लगा दे तो उसे कानूनी कार्यवाही की धमकियाँ दी जाती हैं।
अध्यापक बच्चों से प्रेम करता है, और इसी लगाव की ख़ातिर वो बच्चे को सफ़ल देखने की चाह में उसे डाँट भी देता है। मगर वर्तमान में इस भावना का जैसे गला घोंटा जा चुका हो।
अब वो पहले जैसी बात नहीं है, जब अध्यापक का औदा सर्वोपरि हुआ करता था। उसका मान सम्मान किया जाता था।
इन दिनों तो पांचवी के बच्चे भी आँखों में आँखें डालकर अभिमान से भरा उत्तर अध्यापक को देते हैं।
खैर इन सब बेड़ियों का अध्यापक के जीवन से अधिक प्रभाव बच्चों के जीवन में होने लगा है। वे नैतिक मूल्य भूलते जा रहे हैं, यही कारण है कि इन दिनों वृद्ध आश्रमों की संख्या में इज़ाफ़ा देखने को मिल रहा है।
