Dr. Pooja Hemkumar Alapuria

Drama

5.0  

Dr. Pooja Hemkumar Alapuria

Drama

अभिनव

अभिनव

17 mins
708


चाय की प्याली टेबल पर रखते हुए मोहन ने पत्नी से कहा, “रोहिणी गर उस दिन मैंने डिसिज़न नहीं लिया होता तो आज हमारे जीवन ये दिन नहीं आता। कष्ट हुआ, लेकिन कभी-कभी हालातों के विरूद्ध जा कर लिए गए निर्णय कारगार साबित हो ही जाते हैं। ”

“मैं कुछ समझी नहीं किस डिसिज़न की बात कर रहे हो ?” रोहिणी ने कुछ असमंजस स्थिति में मोहन से पूछा।

“रोहिणी तुम कैसे भूल सकती हो ? या अंजान बनने की कोशिश कर रही हो”

“मैं भला ऐसा क्यों .....? सच में। हो सकता है समय के चलते कुछ बातें स्मृतियों से इधर–उधर घर बना लेती हैं, मगर....”

“मगर ... से क्या तात्पर्य है तुम्हारा रोहिणी ?”

“मोहन आपने जीवन में कई निर्णय लिये। मैंने तुम्हारे हर निर्णय को स्वीकार किया। कभी ऐसा नहीं हुआ कि तुमने कुछ कहा और मैंने उसका विरोध किया हो। जिन्दगी के हर मोड़ पर तुम अपने डिसिज़न को लेकर इस तरह सतर्क रहा करते थे कि सामने वाला चाहकर भी कुछ कह पाने में असमर्थ ही रहता”

“तुम ही बताओ कौन-सा निर्णय गलत था, जो परिवार में मेरा कोई विरोध करता। चलो अब छोड़ो भी, जिस डिसिज़न की बात कर रहे थे उसे बताएँ। आज अचानक कौन-सी बात याद आ गई, जो इतने गर्वित अंदाज में त्वरित वेग से मुखरित हो उठे” रोहिणी मुख भंगिमा को स्थिर बनाए मोहन के मुख की ओर ताकने लगी। आखिर मोहन को अपने किस तर्क पर इतना अभिमान हो रहा है

“रोहिणी रहने दो। तुम न समझोगी”

“ऐसी भी क्या बात है जो मेरे विवेक से परे है। पढ़ी-लिखी हूँ। समझदार हूँ। तुम्हारे पूरे परिवार की हर छोटी-बड़ी खुशियों, जरूरतों, उम्मीदों आदि को बखूबी जानती हूँ और हाँ ! इतने बरसों से अपना फ़र्ज ईमानदारी से निभाती आ रही हूँ। बताओ जो तुम्हें या तुम्हारे परिवार को शिकायत का मौका दिया हो या मेरे कारण किसी मेहमान के सामने सिर नीचा हुआ हो। फिर तुम कैसे कह सकते हो ? इतना ही नहीं परिवार और रिश्तों को तूल देने के कारण मैंने अपने करियर को भी दांव पर लगा दिया। मुँह से उफ़ तक न निकली। तो आज यह कैसे सकते हैं आप कि तुम न समझोगी?”

“ऐसा कहने में मेरा कोई गलत औचित्य नहीं था। तुम सदैव भावुक हो जाया करती हो। भावुकता में कोई भी बात समझना और समझाना बहुत ही कठिन होता है। तुम एक अच्छी बहू, भाभी, चाची, जेठानी आदि सभी रिश्तों में परिपूर्ण हो। इन सबसे बढ़कर सर्वश्रेष्ठ पत्नी भी हो। तुम्हारे बिना मेरे परिवार और मेरे जीवन की कोई कल्पना नहीं की जा सकती। तुमने परिवार को इस कदर बाँध रखा है कि माला का एक भी मोती इधर-से-उधर नहीं सरक सकता। अभिमान है तुम्हारी इस सूझ-बूझ पर”

रोहिणी मुस्कुराते हुए, “क्या बात है ? तारीफों की लड़ी....”

“इसमें तारीफ वाली क्या बात है? तुम्हीं से तो सीखा है। यदि ईमानदारी से किये गए काम की तारीफ की जाए, तो सामने वाले व्यक्ति को ख़ुशी तो मिलती ही है साथ ही वह अपने कर्तव्य, काम की तल्लीनता, हौसला, जिम्मेदारी आदि के प्रति और भी सजग हो जाते हैं”

“मोहन क्या मैं अच्छी माँ नहीं ....?”

रोहिणी का चेहरा देख, उसकी बात काटते हुए प्रफुल्लित हो कहता है, “रोहिणी तुम्हें याद है क्या ? मुकेश की वो बात। उस बात को याद कर आज भी मेरे तो हँसी के फब्बारें फूट पड़ते हैं”

“अब तुम्हें मुकेश की कौन-सी बात याद आ गई ? लेकिन पहले मेरी बात का जवाब दो। मोहन क्या मैं अच्छी माँ ....?”

“पहले मेरी सुनो तो सही। जब मुकेश का सिलेक्शन हो गया था”

“मुझे अच्छे से याद है मोहन। मेरे जीवन और परिवार से जुड़ी सभी बातें मुझे याद है। जैसा कि मैंने कहा था बस अंत:मन के किसी कोने में यहीं-कहीं दाबे पड़ी हैं। बस हल्का-सा कुरेदने पर सब यादें ताज़ा हो जाएँगी। तुमने तो अपने उस डिसिज़न वाली बात पर से अभी तक पर्दा नहीं उठाया” 

“रोहिणी तुम सुनो तो ....” 

“तुम्हें हँसी सूझती है। वो दिन कैसे भूल सकती हूँ। बेचारा मुकेश। पिता जी उसे आई.ए.एस. अफसर बनाना चाहते थे, लेकिन मुकेश पर तो आई.आई.टी. का भूत सवार था। आई.आई.टी. एंट्रेंस एग्जाम में टॉपर्स की लिस्ट में होने पर भी बेचारे का चेहरा पीला पड़ गया था। कैसे हिम्मत जुटाई थी बेचारा..” बात पूरी भी न हो पाई थी कि इतने में मुकेश की छः साल की बेटी घुँघराले भूरे से गर्दन तक लटकते बाल, नीली कंचे-सी गोल-गोल आँखें, सुर्ख गुलाबी गाल, फिरंगियों से रंग वाली सलोनी कुछ गुनगुनाते हुए रोहिणी के कमरे में प्रवेश करती है। दोनों को बातें करते देख चुप हो जाती है।

“सलोनी चुप क्यों हो गई बेटा ? गाओ। कितना सुंदर गाती हो।” मोहन सलोनी को अपनी गोद में बैठाते हुए कहता है

सलोनी बड़े ही चंचल स्वभाव की थी। फुर्ती से मोहन की गोद से उतर दोनों हाथों को जोड़ते हुए और होठों को गोल कर ठुमकते हुए रोहिणी से लिपटते हुए कहती है, “ चलो बुलावा आया है माता ने .....”          

सलोनी की ऐसी नौटंकी देख पहले तो रोहिणी खिलखिला उठी। अपनी हँसी पर कंट्रोल करते हुए कहती है, “जी माता जी कहिए क्या आदेश है। किसका बुलावा आया है”

कुछ तुतलाते अंदाज में, “अल्ले ताई जी आपको समज नई आया।”

जल्दी चलो दादी जी आपको बुला रही है।

“सलोनी दादी जी से कहो तुम्हारी ताई जी अभी आ रही है” मोहन कहता है।

सलोनी ठुमकती-सी कमरे से बाहर चली जाती है।

रोहिणी तुम्हारे साथ दो पल बिताना भी कितना मुश्किल है। पहली बात ऑफिस के कामों से फुर्सत नहीं मिलती और गर थोड़ी बहुत फुर्सत मिल भी जाए तो फिजूल के बुलावे चले आते हैं। हर कोई तुम्हीं पर निर्भर है। जिसे देखो तुम्हीं पर हुकुम चलाता है। छोटी को देखो। मजाल है जो उसे कोई काम कह तो दे। कल की आई तुम्हारी देवरानी भी तुम पर आर्डर चलती है। कैसे टोलरेट करती हो ...”

“मोहन ये सब मेरी जिन्दगी का ही हिस्सा है”

“हिस्सा ? कैसा हिस्सा ?”

“तुम नहीं समझोगे”

“क्यों ? मैं क्यों समझ नहीं सकूँगा ? क्या मैं बच्चा हूँ? सब दिखता है मुझे। बेवकूफ न समझों”


 “मैंने कब कहा कि तुम बच्चे हो या तुम बेवकूफ हो ? मैं तो सिर्फ इतना .....”

“अब बस रहने भी दो। जाओ। जल्दी जाओ। तुम्हें माँ बुला रही हैं”

“नहीं आज मुझे कह लेने दो। अगर आज न कहा तो जिन्दगी में कभी न कह पाऊँगी। रही बात माँ की तो उन्हें पाता है कि तुम घर में हो। गर बाद में भी गई तो कोई पहाड़ नही टूट जाएगा। उन्होंने ही जीना सिखाया है। हम सब कितने भाग्यशाली हैं कि हमें ईश्वरतुल्य माँ-बाबूजी मिले” 

“हाँ ! अब आगे कहो। क्या कहना चाह रही हो?” थोड़े रूखे स्वर में कहता है।

“मोहन जब मैं शादी करके इस घर में पहली बार आई थी, तो मेरे लिए सब कुछ नया था। ये घर, घर के सभी लोग और तुम ....I उन दिनों तुम अपने काम में इतना मशगूल थे कि चाह कर भी तुम मुझे समय ही न दे पाते थे। कुछ दिनों तक तो यही लगा कि मेरे इस नए परिवार से, उनकी आदतों से, उनकी पसंद, नपसंद, जरूरतों आदि से तुम मुझे परिचित कराओगे। मगर तुम्हारे पास तो वक्त ही नहीं था। पूरा-पूरा दिन तुम्हारे लौटने के इंतजार में बिता देती। कभी लंच, तो कभी डिनर करना ही रह जाया करता। झल्लाहट-सी भी होती। मगर किसे दिखाती? जब तुम थके मांदे घर लौटते, तो खाना खा कर तुम सीधा बिस्तर पकड़ लिया करते। कहने सुनने के लिए तुम्हारे पास वक्त किधर था। फिर अगली सुबह तुम जल्दी ऑफिस भागने के चक्कर में .....I मैं धीरे-धीरे तुम से दूर होती चली गई। इतनी दूरियाँ कब छिन गई समझ ही न आया। एक तरफ तुमसे जुड़ने वाला सेतु कमजोर हो रहा था, तो वहीं दूसरी तरफ तुम्हारे परिवार से दोस्ती का, अपनेपन का, घनिष्ठता का नया रिश्ता जन्म ले रहा था। उन सब के साथ वक्त की सीढियाँ कैसे चढ़ती गई कुछ पता ही न चला ? कहीं माँ-बाबू जी का प्यार था, तो कहीं बड़ी बहन जैसे फटकारने का हक, कहीं ननद-भाभी की खट्टी-मीठी गपशप ....I आत्मिक पीड़ा और बाह्य ख़ुशी के आवा-गमन का एहसास ही न हुआ। जिन्दगी रेल की उन पटरियों की तरह थी जो पास होकर भी एक न थी। हमारी नजदीकियों का नहीं, लेकिन तुम्हारा सामने होना ही काफी लगता था”

“अभिनव के आने पर तो जैसे मेरी जिन्दगी का मकसद ही बदल गया था। मेरा हँसना-रोना, गाना-गुनगुनाना, सोना-जागना, उठाना-बैठना सब कुछ उसी से जुड़ गया। मेरे जीवन की परिधि का दायरा उसी के इर्दगिर्द तक खिंच गया। वो मेरे जीने की वजह। मेरा अस्तित्व ...”

“तुमने कभी शिकायत क्यों नहीं की ? मैं यही समझता रहा कि तुम शायद ऐसी ही हो”

( रोहिणी हाथ में चाय का प्याला ले कुर्सी से उठते हुए धीरे- धीरे कदम बढ़ाते हुए खिड़की के पास जा खड़ी होती है।)

भीनी-सी मुस्कुराहट भरते हुए, “शिकायत करती तो भी कैसे ? तुम्हारे पास तो उतना भी वक्त नहीं था। मैंने ही हालातों से समझौता कर लिया। जब कभी तुम घर पर रहा करते, तो माँ घर के कामों से मुझे कोसों दूर रखती। ताकि हम एक दूसरे को वक्त दे पाए। मगर तुम्हारे प्रोजेक्ट्स .... ”

“आखिर तुमने बताया नहीं कि किस डिसिज़न की बात कर रहे थे ? तुमसे एक बात और भी पूछी थी मैंने मगर तुम मेरे हर सवाल को नज़रन्दाज किये जा रहे हो ...?”

“सब सवाल-ववाल छोड़ों, आज मैं कुछ कहना नहीं चाहता बस तुम कहती जाओ। तुमने बताया नहीं कि छोटी बहू के तुम पर आर्डर ....?”

“जब तक तुम्हारी बहन रीनू की शादी नहीं हुई थी तब तक उनकी जी हुजूरी करने की आदत थी। उनका काम करना मुझे अच्छा लगता था। एक छोटी बहन के नखरे उठाने की आदत सी हो गई थी। रीनू को बहुत ख़ुशी मिलती थी और माँ से भी डांट नहीं पड़ती थी उन्हें। रही बात छोटी बहू की, वो भी तो मेरी छोटी बहन जैसी ही है। क्या फर्क पड़ता है। उसके छोटे–छोटे दो बच्चे, नौकरी की जवाबदारी, माँ-बाप की लाडली इकलौती बेटी है। बड़े नाज़ो से पली है। उसे घरेलू कामों की आदत नहीं है। सीख जाएगी। मैंने कभी नहीं सोचा था कि ....”

“क्या नहीं सोचा था रोहिणी? रुक क्यों गई ? कहो”

“रहने दो मोहन। फिर कभी”

“नहीं रोहिणी आज अपने मन की सारी बात कह डालो। मुझे भी महसूस होता है कि मैं तुम्हारा अच्छा पति नहीं हूँ। तुमने अपने ह्रदय में जैसे पति की कल्पना की होगी मैं उन पर खरा नहीं उतरा। अपनी कामयाबी और नए प्रोजेक्ट्स को पूरा करने की धुन में अपनी जिम्मेदारियों से कहीं विमुख हो गया था। कभी सोच ही नहीं पाया की उन सब से परे भी कोई जिन्दगी है। उसके लिए भी मेरी उतनी ही जिम्मेदारी है जितनी ऑफिस के कामों के लिये। तुम कुछ कह रहीं थीं ....”

“मैंने कभी नहीं सोचा था कि अभिनव को अपने परिवार के होते हुए भी होस्टल में रहना पड़ेगा। माँ-बाप के प्यार से वंचित होना होगा। मात्र ग्यारह साल का था। कितनी कष्टदायी होती है होस्टल की लाइफ। कितना बेबस है वो। चाह कर भी कुछ कह न पाया था; जब तुमने उसके होस्टल का फरमान जारी कर दिया। अवाक-सा हो गया था। मेरा मासूम सा बच्चा। मैं जानती हूँ अपनों से दूर रहना क्या होता है। दूरियाँ समय से पहले ही बचपन को प्रौढ़ता की चादर से ढक देती है। जिम्मेदारियाँ और समझदारी मासूमियत का दम घोंट देती है। न जाने किन हालातों से जूझा होगा पिछले कई सालों में। कभी अपने अकेलेपन से, कभी गैरों के अनचाहे बर्ताव से, कभी मानसिक उलझनों से, तो कभी.....I आखिर ऐसी कौन-सी वजह थी ? जो माँ – बेटे के बीच दूरियाँ बना दी” रोहिणी का स्वर भर्रा उठा, गला रुंध-सा हो गया, द्रवित आँखों से सुर्ख लाल नसे दीख रही थीं। मोहन रोहिणी की ओर बढ़ा, उसके कंधे पर हाथ रखते हुए समझाने के भाव सेI

“रोहिणी मुझे माफ़ कर दो। मैं कभी अभिनव को हम दोनों से और परिवार से दूर नहीं करना चाहता था। लेकिन ...”

“लेकिन क्या मोहन ?” रोहिणी पूछती है।

“मुझे याद है मैं अपने ऑफिस के कामों में इतना व्यस्त रहता था कि तुम्हें और अभिनव को समय ही नहीं दे पाता था। मैं अभिनव में एक बदलाव देख रहा था। उस बदलाव को बर्दाश्त नहीं कर पा रहा था क्योंकि घर में तुम्हारे साथ-साथ सभी अभिनव के इस बदलाव को देखना ही नहीं चाहते थे। मैं महसूस कर रहा था लेकिन उसके इस बदलाव के लिए कुछ भी कर पाने में असमर्थ था”

“तुम उसमें कौन-से बदलाव की बात कर रहे हो ?”

“बचपन से ही घर में उसे सभी से इतना प्यार मिला कि लाड़-प्यार ने उसे बिगाड़ना शुरू कर दिया था। अपनी बात को मनवाने के लिए उसके पास एक तुम ही नहीं बल्कि पूरा घर उसके साथ था। तुम्हारी आदर्श परवरिश धीरे-धीरे फीकी पड़ रही थी। मैं तुम्हें टूटता और बिखरता नहीं देखना चाहता था। अभिनव के हाथों से निकल जाने पर यदि तुम किसी भी तरह अपनी परवरिश पर शक करती, यह मैं बिलकुल बर्दाश्त नहीं कर पाता। कई बार अभिनव से बात की, मगर हर बार मेरी कोशिश बेकार थी। मुझे देखते ही वह इधर–उधर भागने का प्रयास करता। उसकी कतराती नजर मुझे भीतर तक कौंध जाती” नॉक – नॉक ......नॉक (दरवाजे पर दस्तक होती है। )


“लगता है सलोनी होगी।” रोहिणी कहते हुए दरवाजे की ओर बढ़ती है। जैसे ही दरवाजे पर लटका पर्दा एक ओर हटाती है, तो देखते ही ख़ुशी से फूली न समाती है। सामने अभिनव था। हर्ष से उसे गले लगाए (कुछ देर के लिए स्तब्ध हो जाती है।) वहीं चौखट पर खड़ी हो जाती है।

(मोहन रोहिणी को चिड़ाते हुए।) “तुम माँ बेटे यूँ ही खड़े रहोगे क्या? बेटा इतने समय बाद आया है मुझे भी मिलने दो।“

( रोहिणी द्रवित आँखों को पोछती हुई अभिनव को अंदर लाती है )

( अभिनव दोनों के पैर छूता है। )

“माँ कैसी हो ? मुझे पाता है आप मेरे लिए बहुत परेशान रहती हो। अब चिंता करने की कोई जरूरत नहीं। मैं आज जो कुछ भी कर पाया सिर्फ पापा की वजह से। माँ आपने मुझे जन्म दिया। परिवार, संस्कार, सभ्यता आदि से अवगत कराया, लेकिन पापा ने मुझे दुनिया के तौर तरीकों को समझने में मेरी मदद की। शायद आज पूरा परिवार यही सोचता होगा कि पापा ने मुझे होस्टल भेजकर मेरे साथ नाइंसाफी की। मेरा बचपन मुझसे छीन लिया। अपनों से दूर कर दिया”

“अभिनव तुम भी न किन बातों को लेकर बैठ गए अभी आए हो, थके हुए होगे। कब आए ? तुम्हारे चाचा ने भी खबर नहीं की कि तुम लोग आ गए हो। बताओ क्या खाओगे ?”

“माँ इतने सवाल एक साथ ; ज़रा रुको, साँस तो ले लो। सब बताता हूँ”

“ठीक है। वैसे आज तुम्हारी चाची ने सब कुछ तुम्हारी पसंद का ही बनाया है”

“माँ ! आज मैं आपसे कुछ कहना चाहता हूँ। मैंने पापा और आपकी सभी बात सुन ली है। सलोनी जब आपको बुलाने आई थी तो दादी ने इसीलिए आपको बुलाया था कि आपका लाडला बेटा आ गया है। दादी आपको सरप्राइज करना चाहती थीं। आपके न आने पर मैं खुद ही इधर चला आया। जब इधर आया तो देखा आप और पापा आपस में बात कर रहे थे। मैं कुछ देर बाहर ही रुक गया। माँ आप जो कुछ भी पापा के बारे मे सोचती है सब गलत है”

“जब मुझे होस्टल भेजने का निर्णय लिया गया था, तब घर में इस बात से कोई खुश न था। यहाँ तक कि मैं खुद भी पापा से बहुत नाराज़ था। आपने ही मुझे हिम्मत दी थी कि मैं पापा के निर्णय का विरोध न करूँ। जैसा वह चाहते हैं वैसा ही करूँ। मैं आपकी बात टाल नहीं सकता था। मैंने बचपन से अपनी दुनिया आप में ही देखी थी। आप मेरे लिए सब कुछ हो, तो आपको कैसे नाराज़ कर सकता था। इसलिए चुपचाप होस्टल चला गया। होस्टल के वातावरण ने मुझे और भी तोड़ दिया। अपनों को ढूँढने की कोशिश करता मगर ....I अकेलेपन ने मेरे मन में पापा के लिए जहर भरना शुरू कर दिया। दिन–प्रति–दिन मेरी शैतानियाँ बढ़ने लगी। होस्टल से अक्सर पापा को कॉल आता। पापा आपसे ऑफिस टूर का बहाना बना मेरे पास पहुँच जाते। मैं उन्हें देखना भी पसंद न करता। मुझे आप सब से दूर कर दिया यही सोच पापा को दोषी मानता था। अकेले रहने पर यही सोचता कि आखिर पापा को इसमें कौन सी ख़ुशी मिली होगी ? मेरे लाख बुरे बर्ताव पर भी पापा मुझे कुछ न कहते। मुझे रोज फोन करते। मुझसे बात करने की कोशिश करते, मगर मैं ....”

“मेरे इस बर्ताव की खबर होस्टल के प्रिंसिपल तक पहुँच गई। एक दिन प्रिंसिपल क्लास में आए और सभी से कुछ न कुछ बातें की। शायद ही क्लास का कोई ऐसा बच्चा होगा जिसके विषय में वह अच्छी–बुरी सभी आदतों से परिचित न हों। उन्होंने अपनी सकारात्मक बातों से सभी को कोई न कोई संदेश दिया और भी बहतर श्रम करने के लिए प्रोत्साहित किया। उनकी छवि मेरी दिलों–दिमाग पर छा गई। बस उस रोज से वह मुझे कभी प्रार्थना स्थल पर, कभी क्लास में, तो कभी बरामदे में अक्सर मिल जाया करते। मुझसे बात किए बिना वे कभी आगे न बढ़ते। एक दिन मुझे अपने केबिन में बुलाया और मेरी दिनचर्या, पसंदीदा विषयों, मेरे दोस्तों, परिवार आदि के बारे में पूछते –पूछते पापा के प्रति मेरे रूखे बर्ताव पर बात की। न जाने मैं कैसे उनके सामने ढीला पड़ गया और सब कह डाला”

मेरी बातें सुन प्रिंसिपल ने मुझसे पूछा, “ क्या तुम घर वापस जाना चाहते हो ?”

मैंने भी आतुरता से जवाब दे दिया, “ येस सर.”

मेरे येस सर वाले जवाब को देख प्रिंसिपल समझ गए की अब गाड़ी पटरी पर आ जाएगी।

उन्होंने कहा, “ देखो बेटा तुम्हें कुछ प्रोमिसिस करने होंगे तभी मैं तुम्हें वापस भेज सकता हूँ।”

“येस सर” मैंने जवाब दिया।

“देखो तुम्हें कुछ महीने तो बीत ही चुके हैं होस्टल में आए। अब इस कदर तुम साल के बीच में जाओगे तो कहीं एडमिशन नहीं मिलेगा। तुम्हारा पूरा एक साल बर्बाद हो जाएगा। अगर तुम अपनी शैतानियाँ कम कर दो तथा क्लास में अव्वल आओगे तो मैं तुम्हें अगले साल होस्टल में नहीं रखूँगा। हाँ ! एक बात और तुम्हें सबके प्रति अपना व्यवहार भी बदलना होगा” मैंने प्रिंसिपल से प्रोमिस किया और अपने रूम में आ गया।

“अब तो मुझ पर घर आने का भूत सवार हो गया। शैतानी का नामोनिशान नहीं, अपने काम से काम रखना, पूरी तरह से पढ़ाई में जुट गया, पापा के फोन आने पर ठीक से बात करना, जब पापा मुझसे मिलने आते तो एक सभ्य बालक सा व्यवहार करना। धीरे-धीरे पापा और मेरी दूरियाँ कब नजदीकी में बदल गई पाता ही नहीं चला। पापा का आना। मेरे साथ समय बिताना। मुझे अच्छी-अच्छी बातें बताना। सब अच्छा लगता था। जो समय पापा मुझे यहाँ नहीं दे पाए थे, लेकिन होस्टल में मिलने आने पर मेरे साथ एक–एक पल जीते। मुझे इससे बहुत आनन्द मिलत”

“माँ आपको एक बात तो पता ही नहीं कि सर्दियों में बहुत अधिक ठंड पड़ने से मैं भी बुखार की चपेट में आ गया था। ऐसे में जब पापा को खबर लगी तो वे दौड़े-दौड़े सीधे होस्टल पहुँचे। पूरा एक हफ्ता पापा मेरे साथ ही थे। जब तक मैं हॉस्पिटल में था, एक मिनट भी पापा ने अपनी पलक तक न झपकी थी। पापा का ऐसा प्यार, स्नेह, नजदीकी, मेरे लिए चिंता करना आदि देख मैं मन-ही मन फूला न समा रहा था कि मेरे पापा भी मुझसे उतना ही प्यार करते हैं जितना घर पर सभी....I होस्टल की न जाने कितनी छोटी–बड़ी बातें हैं, जिनकी पापा ने किसी को कानों कान खबर न होने दी। सबकुछ खुद ही ....”

“देखते – देखते एक साल कब निकल गया पाता ही नहीं चला। आखिर वो दिन भी आ गया जब मेरा परीक्षा फल मिलने वाला था। पापा आपको भी होस्टल लाना चाहते थे, मगर मैंने ही मना कर दिया। ऐसा नहीं है कि पापा की नजदीकियों ने आपके लिए प्यार कम कर दिया था”

“पापा होस्टल आए। मेरे क्लास टीचर से मिले। मेरा रिजल्ट देख, पापा फूले न समाए। ख़ुशी के मारे उन्होंने मुझे सीने से लगा लिया। क्लास टीचर ने बताया कि आपके बेटे ने क्लास में ही नहीं पूरे होस्टल में टॉप किया है”

“प्रिंसिपल ने पापा को अपने केबिन में बुलाया। पापा को पूरा वाकया कह दिया। अपने वादे के मुताबिक उन्होंने पापा से मुझे होस्टल से ले जाने के लिए कहा। इस नए बदलाव को देख पापा भी तैयार थे। पापा ने मुझे सामान पैक करने के लिए कहा। मैं असमंजस में था। पापा की दोस्ती ने पुरानी बातों को भुला दिया था। होस्टल के कुछ लड़के मेरे अच्छे दोस्त बन गए थे। उन्हें छोड़ना मुझे बुरा लग रहा था। मगर आप सबके पास जो आना था”

“मेरे वापस आने पर सभी खुश थे लेकिन आप लोगों से ज्यादा मैं खुश था। दो-चार दिन सब ठीक लगा। पापा भी समय देने में कोई कंजूसी न करते। उनका ऑफिस से जल्दी आना। सारा समय मुझे ही देना। धीरे-धीरे छुट्टियाँ ख़त्म होने लगी। इधर पापा और आप मेरे दाखिले के लिए भाग-दौड़ कर रहे थे। अचानक मुझे ऐसा लगा कहीं आप सब के लाड़-प्यार में मैं फिर से कमजोर न पड़ जाऊं”

“मैं मानता हूँ उस समय मैं इतना बड़ा नहीं था कि अपने निर्णय स्वयं ले सकूँ। मगर होस्टल में रह कर जिम्मेदारियाँ, कर्तव्य, कर्मठता, अनुशासन आदि सीख लिया था। मन में ख्याल आया। नहीं, अभी नहीं। अभी उचित समय नहीं आया। मुझे अपनी स्टडी कंपलीट करने पर ही....। पापा से होस्टल वापस जाने की बात की। पापा ने मुझे बहुत समझाया। मगर मैं होस्टल में अपना फ्यूचर देख रहा था। अब कुछ बन कर ही ....। माँ से जो वादा किया था उसे पूरा करके रहूँगा”

“पापा का साथ और आपके विश्वास के कारण ही मैं आज इस मुकाम पर पहुंचा हूँ। माँ मुझे माफ़ करना। पापा कभी गलत नहीं थे। मुझे अपने माता–पिता और परिवार पर गर्व है। माँ मुझे क्षमा करना इतने वर्ष मैं आपसे दूर रहा। इसमें मेरा ही दोष था, पापा का नहीं। आप दुनिया की बेस्ट माँ हो। आपको पापा से यही जबाव चाहिए था न कि आप कैसी माँ हो ?

अभिनव और मोहन एक साथ, “ तुम दुनिया की बेस्ट माँ हो।” ( तीनों खिलखिला कर हँसते हैं।)



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