Anand Kumar

Abstract Tragedy

4.8  

Anand Kumar

Abstract Tragedy

अभी मैं मरा नहीं था

अभी मैं मरा नहीं था

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"मैं उस समय तक नहीं मरा था, जब बेटे ने मेरे ऊपर से ऑक्सीजन सिलेंडर हटा कर अपनी माँ को लगाया था।


हर तरफ वार्डब्वॉय और परिवारजन मृतकों से ऑक्सीजन हटा कर जीवितों को लगा रहे थे। जिसके बच सकने की उम्मीद थी, उसे किसी तरह हाथ-पैर मारकर बचाना चाह रहे थे। इस कोलाहल के बीच मैं भी थोड़ा बहुत बचा हुआ था, लेकिन समाज की अंतरात्मा की तरह मैंने भी सोए रहना चाहा। सिंलेंडर लगने के बाद भाग्यवान की उखड़ी हुई साँसें कुछ सम होने लगीं थीं। वहीं पास के बेडों पर लेटे दूसरे “आपदासाथी” इतने भाग्यवान नहीं थे। मेरे सामने ही एक-एक करके “अच्छा तो हम चलते हैं” कहते हुए अपने शरीरों से ऊपर उठ रहे थे। वो सब ग्रुप में एक साथ निकल रहे थे। 


मैंने एक को रोक कर पूछा, “कहाँ जा रहे हो?” 

उसे कहीं जाने की जल्दी नहीं थी। फुर्सती लहजे में बोला, “पहले बंगाल जाके थोड़ी देर रैली देखेंगे, फिर महाराष्ट्र जाकर आईपीएल, उसके बाद यमलोक निकल लेंगे।”

 मैं सशंकित हुआ, “क्यूँ यमदूत नहीं आ रहे हैं क्या लेने? ”


“पता नहीं...यमराज ने कोई आश्वासन भी नहीं दिया है”, उसने कैजुअली कहा और दूसरों के साथ उड़ गया।


खिड़की के बाहर देवदूत और फरिश्ते अफरातफरी में उड़ रहे थे। मैंने एक को रोका, “क्या बात है सर ये रूहें इधर-उधर भटकती हुई मटरगश्ती क्यूँ कर रही हैं?”


फरिश्ता डॉक्टरों की तरह झल्लाया हुआ था, “इतना ज्यादा केसेज आ रहा है कि ऊपर दूतों का शार्टेज हो गया है। लोगों को ऊपर ले जाने का पूरा इंफ्रास्ट्रक्चर बैठ गया है। ओवरप्रेशर में यमदूत मुसलमानों को उठा रहे हैं और मलिकुल मौत हिंदूओं को उठाए लिए जा रहे हैं। ऊपर जाकर सॉर्टिंग करना पड़ रहा है। ब्यूरोक्रैट्स बिना अंतिम संस्कार और दफनाए, आत्माओं/रूहों को ट्रांस्पोर्ट सुविधा देने में तकनीकी दिक्कत बता रहे हैं। बहुत कंफ्यूजन है”


“औह्ह! ऊपर तो पूरा उत्तरप्रदेश हो गया है?”


दूत झल्लाया हुआ था, “और क्या? चित्रगुप्त तो इतना लोडिया गए हैं कि एक नमाजी का बही खाता लिखने लगे थे। उसने जब कहा “साहब मैं तो मुसलमान हूँ” तो भड़क गए। डाँटते हुए बोला, “चुप रहो! नीचे यही हिंदू-मुस्लिम करने की वजह से आज यहाँ पहुँचे हो। कायदे से शिक्षा-स्वास्थ्य पर ध्यान दिया होता तो इस समय बेगम के साथ इफ्तार कर रहे होते”, 


वाकया सुनाते वक्त दूत बहुत गुस्से में था और मेरी तरफ इस तरह देख रहा था कि मैं बिना मरे उसका टाइम खराब कर रहा हूँ।


“मुझे भी ले चलिए सर। मैं भी वहाँ का माहौल देखूँ। यहाँ का मंजर और नहीं देखा जाता”

“अभी कहाँ। अभी तो तुम्हें बहुत कुछ देखना है। अभी तुम्हारी ठीक से मौत नहीं हुई है”, कहकर वह उड़ गया।


मैं मन मसोस कर वापस अपने वार्ड को देखने लगा। डॉक्टर सब मशीन की तरह लगे हुए थे। नर्सें सब नेता हो गईं थीं। हर परिजन को झूठे चुनावी वादे कर रही थीं, कि धीरज रखो, सब ठीक हो जाएगा। उनके हाथ में सत्ता आते ही सबको एक-एक ऑक्सीजन सिलेंडर, एक रेमडेसिविर इंजेक्शन और एक वेंटीलेटर दिया जाएगा। मरीज अभी भी भोली जनता की तरह उनकी बात मान रहे थे। मगर दुख की बात ये थी कि नर्सें व्यवस्था के आगे हार गईं थीं। पिछले चुनाव में जनता ने ही उन्हें हराया था और अब जनता खुद जिंदगी की जंग हार रही थी। 


मैं अभी मरा नहीं था, लेकिन पता नहीं क्यूँ मेरी बेटी मुझसे लिपटकर रोने लगी थी। पीपीईकिट में वो और सफेद मरीजी लिबास में लिपटा मैं, हम दोनों कफन का सामान लग रहे थे। उसके गले का हार ऑक्सीजन सिलेंडर की व्यवस्था में ही चला गया था। वो मुझसे लिपटकर रोते ही रहना चाहती थी, मगर पीछे से वार्ड ब्वाय ने हड़काया, “इनको श्मशान ले जाइए मैडम। दूसरे मरीज लाइन में हैं।” 


वह स्ट्रेचर पर मुझे ढकेलते बिलखते लाशगाड़ी के पास पहुँची। ड्राइवर ने दो टूक जवाब दिया, “मैडम बारह हजार लगेंगे"


उसे अपने कानों पर यकीन नहीं हुआ , “मगर श्मशान तो बस पाँच किलोमीटर दूर है”, उसने कहा।

“यही तो आपदा में अवसर है”, उसने कहा, "चलना हो तो बोलिये वरना अपने कंधे पर ही टाँग लीजिये बाप को"


मैं जिंदगी भर रिक्शे वाले को पाँच रुपया कम देता आया था। मन हुआ कि अभी स्ट्रेचर से उठकर उसका गिरहबान पकड़ लूँ। लेकिन वह मेरी पहुँच से बहुत दूर था। मैंने देखा कि बेटी को गिड़गिड़ाते देख, ऊपर बैठे कुछ लोग हँस रहे थे। आम आदमी से थोड़ा ऊपर बैठे वो लोग देवता नहीं थे। देश के इंडस्ट्रियलिस्ट थे। हिकारत से कह रहे थे, “हर चीज पर सरकार को दोष देने वाले ये लोग अपने घरों में ऑक्सीजन कंसंट्रेटर्स और दूसरे मेडिकल इक्विपमेंट्स् क्यूँ नहीं लगाते?”

दूसरे ने कहा, “छोड़िए ये सब तो हमारे टैक्स पे पल रहे पैरासाइट्स हैं। मैं तो सिंगापुर जाकर वैक्सीन लगवा आया”


वो सब हो हो करके हँसे। नीचे मेरी बेटी ने अपने हाथ के कंगन उतार दिए थे। मुझे लाशगाड़ी पर चढ़ाया जा रहा था। श्मशान की चिम्नी से बहुत गहरा धुआँ उठ रहा था। बेटी को एक टोकन पकड़ा दिया गया और मुझे दूसरी लाशों की तरफ धकेल दिया गया। मैं तबतक जिंदा था। बेटी से श्मशान वालों ने कहा, “जलाने का सात हजार लगेगा, लकड़ी का रेट बहुत बढ़ गया है, हम लोग लाशोत्सव मना रहे हैं”


बेटी ने अपने शरीर पर मौजूद आखिरी आभूषण, अंगूठी भी उतार दी। आगे की कारवाई फटाफट पूरी हुई। जब मुझे लकड़ियों पर चढ़ाया जा रहा था, तब तक मैं जिंदा था। और जब जलाया जा रहा था, तब भी। लपटों के बीच से मैंने देखा कि पंडित बेटी से कुछ कह रहा था, "तर्पण के बिना इनको मुक्ति नहीं मिलेगी। दो हजार दक्षिणा तो देनी ही चाहिए। कैश न हो तो इ-वैलेट पर भेज दो"


मैंने जड़ खड़ी बेटी की ओर देखा। उसके पास अब उतारने के लिए शरीर पर कपड़ों के सिवा कुछ नहीं था।


अब मेरी मौत हो गई।


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