ट्रेन का वो सफर
ट्रेन का वो सफर


हम में से शायद ही कोई हो जिसने ट्रेन में सफर न किया हो पर सफर का असली मजा तो केवल जनरल और रिज़र्वेशन वाले डिब्बों में ही है। बात सन 2011 की है जब मैं बीटेक पास कर चुका था और अपनी डिग्री लाने पटना से भोपाल के लिए किसी एक्सप्रेस ट्रेन पर सवार हो गया । नाम इसीलिए याद नहीं क्योंकि बचपन से ही एक आदत सी हो गई थी कि जो भी पहली ट्रेन मिले अपने गन्तव्य को ओर जाने वाली, उसपर बस सवार हो जाना है। आखिर पापा रेलवे ड्राइवर जो थे तो टिकट कटाना हमारे व्यवहार में कभी आया ही नहीं। खैर अब लंबी सफर थी तो जनरल डिब्बे में तो नहीं ही जाते तो रिज़र्वेशन वाली बोगी में ही चढ़ गए। रिज़र्वेशन डब्बे में भी कमोबेश लोग जनरल टाइप मिलनसार ही होते हैं तो दिन में बैठने की जगह मिल ही जाती है। मैंने भी सोचा जब अपनी कोई आरक्षित सीट है नहीं तो क्यों नहीं ऐसी जगह बैठी जाय जहाँ समय थोड़ा अच्छा कट जाय। अंततः मुझे एक जगह मिली जहाँ एक कुछ लड़के और एक सुंदर सी कन्या बैठी थी। बड़े ही सहजता से उन्होंने बैठने की जगह दे दी। बातों बातों में पता चला कि वो भी किसी इंजीनियरिंग कॉलेज के प्रथम वर्ष के छात्र हैं... फिर क्या सेनिओरिटी का अपना भोकाल जमाना शुरू कर दिए। वो लोग भी सर् सर् के संबोधन से मुझे ताड़ के झाड़ पर चढ़ाए जा रहे थे। पर उन तीनों में एक बात कॉमन थी कि तीनों उस एकमात्र सुंदर सी कन्या को अपनी बातों/हरकतों से सम्मोहित करना चाहते थे और मैं इस बात से खुश था कि बिना टिकट सौंदर्य के दर्शन हो रहे थे। बातों ही बातों में पता चला कि उस सुंदरी को #इंजीनियरिंग_मैकेनिक्स में दिक्कत है पर तभी अचानक तीनो ने ही उसकी हरसंभव मदद की पेशकश कर डाली पर आखिर मैं भी तो उनका सीनियर था...कोई कसर क्यों रहने देता, पेपर निकालने की ऐसी युक्ति समझायी की फिर आगे की 10 मिनट का पूरा वार्तालाप उस सुंदरी और मेरे बीच सिमट कर रह गया। तीनो जल भुन रहे थे कि कब मौका मिले और वे उस वार्तालाप में अपनी सहभागिता दे पाएं।
दिन का समय इन सब में यू ही बड़ी सहजता से कट गया परंतु अगर कन्फर्म टिकट न हो तो रात काटना बड़ा ही मुश्किल होता है। रात होते ही सब अपनी अपनी बर्थ बिछा कर लेट गए पर आखिर नींद तो मुझे भी आ रही थी सो मैंने दो बर्थ के बीच वाले स्थान में न्यूज़ पेपर बिछाया और बैग को माथे की ओट पर लेकर सोने की कोशिश करने लगा। 10 मिनट भी व्यतीत नहीं हुआ होगा कि टीटी साहेब आ धमके। उन्हें भी पता था जो बिना बर्थ का है उससे ही कुछ वसूला जा सकता है। पर ज्यूँ ही मैंने #रेलवे_पास का जिक्र किया वो मन मसोस कर चले गये जैसे मैंने मानो बोहनी खराब कर दिया हो। पर इस पूरे क्रियाकलाप ने लाइट आदि ऑन होने के कारण सभी की नींद खुल चुकी थी। फिर एक छात्र ने बोला भैया आप नीचे क्यों सोये हैं ऊपर ही आ जाइये हमे भी नींद नहीं आ रही.. मैंने भी ज्यादा फॉर्मेलिटी न दिखाते हुए मौके की हाथ से जाने नहीं दिया और झट अपर बर्थ पर चढ बैठा। उसने फिर पूछा भैया आप 29 (ताश का एक खेल जिसमे गुलाम की तूती बोलती है) खेलते हैं ...मैंने कहा ऐसा कौन इंजिनीरिंग छात्र होगा जो इस खेल से अनभिज्ञ होगा। उसने तुरंत बैग से ताश की गड्डी निकाली और अन्य दोनो को भी जगाया। मैने भी अपने बैग से गमछा निकाला और झट चारो कोनो को दो upper बर्थ के बीच बांध दिया। फिर क्या माहौल पूरा बन चुका था । सेट पर सेट चलता रहा और पता भी नहीं चला कब सुबह हो गई और हम अपने गंतव्य पर पहुँच गए। 24 घंटे की ये लंबी सफर मानों छोटी और अधूरी सी लग रही थी....पहली बार गंतव्य पर पहुँचने की कोई खास खुशी नहीं हो रही थी!