अब तुम मेरी बहन हो
अब तुम मेरी बहन हो
हौसला
सुबह उठकर मोबाइल हाथ में लिया ही था कि ख्याल आया काफ़ी दिनों से अदिति का कोई मेसेज नहीं आया था। नहीं तो सबसे पहले फूल पत्ती से सज़ा हुआ गुडमॉर्निंग का मेसेज उसी का आता था। दो तीन दिन पहले भी मेरा इसपर ध्यान गया था पर फिर व्यस्तता और कोविड का इंजेक्शन लेने के बाद जो मुझे बुखार आया था, इस वजह से थोड़ा ऑनलाइन कम ही आ पाती थी। शरीर ऐसा कमज़ोर हो गया था कि कोई काम करना तो दूर बस मन करता हरदम लेटी रहूँ। मैंने सोचा, जिनके मेसेज आ रखे हैं सबको जवाब दे दूँ फिर एक बार बिस्तर छोड़ने के बाद दस ग्यारह बजे से पहले फुर्सत कहाँ मिलनेवाली है।
सबसे पहले अदिति को मेसेज किया, "हाई, कैसी हो? कहाँ हो?"
थोड़ी देर जवाब आया हाई, अदिति अब इस दुनिया में नहीं रही। मैं आदित्य उसके मोबाइल से आपके मेसेज का जवाब दे रहा हूँ।
कैसे ? कब?
एकबारगी कई सवाल कौंध गए। कहाँ तो मैं सोच रही थी उसे ताना उलाहना देते हुए उसे प्यार से डांटूंगी कि आजकल कहाँ इतनी व्यस्त रहती है जो उसे मेरी याद ही नहीं आती और अब ये सुनने को मिल रहा है कि वो इस दुनिया में नहीं रही।
मन एकदम दुखी हो गया था। कुछ समझ नहीं आ रहा था कि क्या करूँ। एक तो बुखार, सरदर्द से हालत खराब और ऊपर से सासुमां भी नहीं थीं वरना उनसे बोल बतियाकर थोड़ा मन हल्का कर लेती। नन्हा अंशु वैसे ही जब तब मेरी गोद में बैठना चाहता। मैं और राकेश किसी तरह उसे खिलौने देकर, कार्टून दिखाकर व्यस्त रखने की कोशिश करते। इस महामारी ने बच्चों का बचपन तो जैसे छीन ही लिया था।
मैं ने चाय के दौरान पति को अदिति के ना रहनेवाली बात बताई तो एक पल को उनके मुंह से भी आवाज़ नहीं निकली।
मन तो किया कि फिर से आदित्य को फोन लगाए, पर कहूँगी क्या उससे। अदिति आदित्य की लव मैरीज़ थी। आदित्य मेरे साथ पढ़ता था लेकिन कालांतर में मृदुल स्वभाव वाली अदिति से मेरी ज़्यादा पटने लगी थी।
छत्तीसगढ़ के एक मध्यम वर्गीय परिवार की अदिति अपने परिवार से थोड़ी अलग थी। उसके पापा की किराने की दुकान थी। अदिति बचपन से ही पढ़ने में बहुत अच्छी थी और मेहनती भी। पढ़ लिख कर अपने पैरों पर खड़ा होना ही उसके जीवन का लक्ष्य था। जब रायपुर में सैमसंग के एरिया मैनेज़र के पद के लिए उसका चयन हुआ तब उसने कहाँ सोचा होगा कि आगे जाकर उसकी किस्मत बदलने वाली है।
उत्तर प्रदेश के ठाकुर परिवार का लड़का आदित्य ऑफिस में साथ काम करते हुए कब मीठी बोली वाली अदिति को दिल दे बैठा इसका पता तो दोनों को तब चला जब आदित्य के लिए कई नामी गिरामी परिवार से रिश्ते आने लगे और वह अदिति की जगह किसी को सोच ही नहीं पाता था।
उसने सोचा कि अब अगली मुलाक़ात में वो अदिति से अपने दिल की बात कह देगा। हाँ, क्या हुआ जो जाति बिरादरी समकक्ष नहीं। विरोध तो दोनों परिवार का सहना पड़ेगा। पर इसकी नौबत ही नहीं आई क्यूँकि अचानक उसके पिता की तबीयत ख़राब हो गई, और हृदयाघात से उनकी मृत्यु हो गई थी। अब उसकी छोटी बहन की देखभाल का भार भी अदिति को लेना पड़ा।
ऐसे में पिता को खोकर जब अदिति वापस बिलासपुर आई तो उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि ज़िन्दगी का सफीना अब किसके हाथ में दे। छोटी बहन नीति तभी दसवीं में थी। उसकी देखभाल की ज़िम्मेदारी अब एक तरह से अदिति के ऊपर ही आ गई थी। माँ तो उसकी पहले से ही नहीं थी और बड़ी बहन ब्याह के बाद ससुराल की ही होकर रह गई थी। ऐसे में जब आदित्य ने उसके सामने शादी का प्रस्ताव रखा तो अदिति की सिर्फ एक शर्त थी कि उसकी छोटी बहन नीति उसके साथ ही रहेगी। एक तो विजातीय विवाह, उस पर दहेज़ का नामों निशान नहीं, फिर नीति की एक अतिरिक्त ज़िम्मेदारी इस विवाह का आदित्य के परिवार की तरफ से बहुत ज़्यादा विरोध हुआ। लिहाज़ा बिना रिश्तेदारों के चंद दोस्तों की उपस्थिति में एक सादे समारोह में विवाह सम्पन्न हुआ। उन्हीं दिनों मैं भी शादी के बाद रायपुर आई थी तो आदित्य के बारे में पता चला। दो एक मुलाक़ात में ही अदिति से मेरी बहुत पटने लगी थी।
अक्सर हम दोनों को घुल मिलकर बात करते देखकर आदित्य नाटकीय अंदाज़ में गाने लगता, "दोस्त दोस्त ना रहा, प्यार प्यार ना रहा " फिर सब हँस पड़ते। गंभीर स्वभाव के मेरे पति राकेश हमारे मज़ाक़ में भले शामिल ना होते हों, हमारे साथ बैठते ज़रूर थे। कदाचित मितभाषी अदिति का सान्निध्य सबको अच्छा लगता था। जब अंशु के जन्म पर बधाई देने अदिति मुझसे मिलने आई थी तो मैंने मज़ाक़ में कह दिया कि,
" अब तू भी ले आ एक नन्हा मुन्ना।" मैंने तो मज़ाक़ में ही कहा था पर ये क्या? अदिति एकदम से रोने लगी। मैं अवाक....मैंने ऐसा क्या कह दिया ?
थोड़ी देर बाद संयत होकर अदिति बोली, दरअसल अभी वो बच्चे के लिए सोच भी नहीं सकती। उसकी बहन नीति का उसके साथ रहना
आदित्य के परिवार वालों को तो शुरु से ही पसन्द नहीं था। आदित्य भी अब नीति का रहना और अदिति का उसपर खर्चा करना पसंद नहीं करता था।
इसलिए अदिति अभी अपने बच्चे के लिए सोच भी नहीं सकती थी। उसका कहना था कि दो साल बाद नीति की इंटर्नशीप पूरी हो जाएगी। वो अपना खर्चा खुद उठाने लगेगी तब अगर अदिति खुद का बच्चा लाती है तो उसकी परवरिश अच्छे से कर पाएगी। उस दिन मैं समझ गई थी कि अदिति शादी के बाद बहुत कुछ सह रही है। अब अदिति के जाने के बाद नीति का क्या होगा? कौन उठाएगा उसके खर्चे ?
मेरे दिमाग़ में ये सवाल आँधी की तरह चलने लगे। जैसे ही राकेश अपने कमरे में ऑफिस के जूम मीटिंग में व्यस्त हुए मैं ने नीति को फ़ोन लगाया। अभी उसकी भी ड्यूटी अस्पताल में लगी थी। इसलिए वह ड्यूटी पर थी। मैंने हिसाब लगाया कि अब तक अदिति को भगवान के पास गए हुए लगभग सोलह दिन हो गए थे, इसलिए नीति ने रायपुर मेडिकल कॉलेज ज्वाइन कर लिया होगा। अभी मैं जा तो सकती नहीं थी। अतः फ़ोन पर ही सारी बातचीत करने का इरादा करके मैंने शाम को दुबारा नीति को फ़ोन किया तो पहले तो वो खूब रोने लगी। रोते रोते ही नीति ने बताया कि आदित्य उसे कोई खास पसंद नहीं करता और अदिति का अपनी सैलरी नीति पर खर्च करना उसे पसंद नहीं था। तभी एक ही शहर में रहते हुए भी अदिति ने अपनी सगी बहन को हॉस्टल में रख छोड़ा था। "और अब तो दीदी की सास जीजाजी को दूसरी शादी करने पर भी ज़ोर देने लगी है'। यह सब नीति एक ही साँस में कह गई। आदित्य इतनी जल्दी बदल सकता है, ये तो मैंने सोचा ही नहीं था। वैसे मेरे पति राकेश ने मना किया। मेरा मन भी दुविधा में था कि यूँ किसी के निजी मामलों में दखल करना सही रहेगा या नहीं ? अंततः मैंने दिल की सुनी और हिम्मत करके आदित्य को फ़ोन लगाया। उसे कहा कि शायद तुम अदिति के जाने के बाद दूसरी शादी का सोच रहे हो तो नीति की ज़िम्मेदारी अब मैं लेना चाहती हूँ। क्यूँकि अब वो मेरी बहन है।
मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ जब आदित्य बड़ी आसानी से मान गया। वैसे उसे अभी भी अदिति से एक शिकायत रह रही थी कि....अदिति ने लगभग हर जगह अपनी चल अचल संपत्ति का पहला वारिस (फर्स्ट नॉमिनी ) नीति को ही बनाया हुआ था। और मैं इस बात से अचंभित थी कि पैसा और पैसे का लोभ इंसान को किस हद तक बदलकर रख देता है। आगे की लड़ाई बहुत आसान नहीं है मेरे लिए, नीति के लिए। पर मैंने अपना हौसला बनाए रखा है कि ये महामारी के दिन गुजर जाए, मैं पूर्णतः स्वस्थ हो जाऊँ फिर नीति को कुछ दिनों के लिए घर लेकर आऊँगी। बमुश्किल उन्नीस साल की बच्ची ने अपना माँ बाप
तो पहले ही खो दिया था। अब उसका एकमात्र सहारा उसकी दीदी भी नहीं रही थी। ऐसे में उसकी टूटन का एहसास मैं अच्छी तरह कर पा रही थी।
मैं अपने शब्दों से किसी तरह नीति का हौसला बनाए रखना चाहती थी। धीरे धीरे नीति अब रोज़ शाम को अस्पताल से आकर मुझे फोन करने लगी है। अपने मन की बातें जो वो अपनी बहन अदिति से करती थी, कुछ कुछ मुझसे भी करने लगी है। कदाचित उसने मुझे अपनी बड़ी बहन मान लिया है। और मेरे लिए तो वो एक गुड़िया जैसी है, जैसे अंशु वैसी नीति।
मैं अपने अंदर नीति के लिए भी ममता का अथाह सागर हिलोरे लेता हुआ महसूस कर रही हूँ। सच, जो रिश्ते प्रेम और विश्वास के धागे से बुने होते हैं , उनमें कोई बाहरी आडंबर या दिखावे की ज़रूरत नहीं होती। मेरा हौसला अटल है कि अपनी सहेली अदिति की अधूरी ज़िम्मेदारी निभाकर मैं एक दोस्त और इंसान दोनों का फर्ज़ बराबर पूरा करुँगी और नीति को भी अपना करियर और अच्छा बनाने का नया ज़ज़्बा, नया हौसला मिला है। आखिर उसकी अदिति दी भी तो यही चाहती थी कि वो एक सफल डॉक्टर बने।
(समाप्त )
