आत्मीय सुख
आत्मीय सुख
आत्मीय सुख।
लघुनाटक (एकल अभिनय )
स्वरचित रचना : मृत्युंजय कुमार पटेल।
कथा सार :
आदमी जीवन में कुछ बनना चाहता है। दरअसल वह बन नहीं पाता है । क्योंकि उसके पीछे सामाजिक संरचना प्रवल होती है । वह अपने बच्चों को उसी तरीके से सहयोग या उस फील्ड में लाना चाहते है। जो इस समय भेड़ चाल की दिशा में चल रहा होता है।
कोई विरले ही होता है, जो भेड़ चाल को छोड़ कर अपनी मंजिल खुद तय करता है ।
ऐसे ही एक युवा (प्रकाश) की आत्मकथा/ कहानी है।
उसे भी सामाजिक संरचना के लिए बलि चढ़नी पड़ती है । लेकिन वह अपना अंतर मन की आवाज को सुनता है, अपना हुनर को तराशता है । उसे सामाजिक परिस्थितियां को फेस करना पड़ता है । लेकिन वह
एक दिन सफल होकर अपने जीवन में कीर्तिमान हासिल करता है । वह अपने जीवन को सार्थक मानता है। जिसको एकल अभिनय के रूप में प्रस्तुत करने की कोशिश होगी।
दृश्य १.
(एक युवा हॅंसते हुए मंच पर प्रवेश करता है । उसके अंदर पीड़ा और वह सामाजिक धारणाओं पर व्यंग्य करता है ।)
हा हा ….
आप सोच रहे हैं । मैं हॅंस क्यों रहा हूॅं !
हा हा…
क्योंकि! आप मुझ पर हॅंस रहे हैं , मैं आप पर हॅंस रहा हूॅं।
(हँसते- हँसते अपनी व्यथा हो संप्रेषित करते है। )
इस हँसी के पीछे एक लम्बी कहानी है। जब से मैने होश संभाला था । तब से अपने अंतर मन की आवाज़ को सुनने लगा। मैं वहीं कार्य या कैरियर चुनना चाहता था , जो मुझे आकर्षित कर रही थी ।
मुझे गीत - संगीत । लोकनाट्य और प्राकृतिक गीत मुझे खींच रही थी । मैं उसी विधा में अपना कैरियर बनाना चाहता था । क्योंकि यह विधा जीवंत लगता था। उसमें जैसे घुल मिल गया था।
लेकिन घर वालों ने यह रास्ता कतई चुनने नहीं दिया ।
वे अपने और आसपास की होड़ में मुझे शामिल करन चाहते थे ।
मैं कोई डॉ. इंजीनियर, आदि कुछ भी बन जाऊं उनको उससे कोई परहेज़ नहीं था ।
इसलिए 'मैं' अपने परिवार की वज़ह से अंतर मन की धाराओं में बह नहीं सका। अपने आप को आत्मसमर्पण कर ! मैं बन गया केमिकल इंजीनियर। लेकिन कोई भी यह नहीं पूछा कि मैं बनना क्या चाहता था ।
मेरे बनने से घर वाले बहुत खुश थे । आज तक इतनी खुशियां घर में कभी नहीं देखी थी ।
मैं केमिकल इंजीनियर बनाने के कुछ ही सोलों में बहुत कुछ आर्थिक मज़बूती बनाई ली …।
लोग बाग अपने बच्चे को उपमा देने लगे कि ;देखो फलाना का बेटा अपने पिता का नाम रौशन किया है ।
लेकिन मैं अंदर से खाली डब्बा था । मेरे जीवन का आधार नहीं मिल रहा था । रोज़ का एक ही दिनचर्या , रसायनों का गंध और धूल फांकती फाइलें।
मुझे घुटन सी होने लगी थी।
तब मैने अपने ऊपर लबादे को फेका और अपनी मन की सुनने लगा । लिखने लगा प्राकृतिक गीत । एक रंगकर्मी की तरह लोगों को हॅंसने- हॅंसाने लगा । जो मुझे एक चकौर आकृति में एक गोल बंबू की तरह डाल दिया गया था । उस आकृति से परे बाहर आकर अपनी जीवन में खुशियाली लौट आई थी ।
लोग मुझ पर हँसने लगे। मैं लोगों पर । क्योंकि लोग भीड़ चाल की तरह, अपनी ज़िन्दगी गुज़ार रहे हैं । वह भी एक चकोर आकृति में बंधे हैं। बाजा़रवाद और सामाजिक पुरानी रीति-रिवाज,आकृतियों में भटक रहे हैं । उनकी जीवन की अपनी आकृति नहीं है।
मैं इस लिए हॅंस रहा हूॅं । आज मैं खुश हूँ। अपने लक्ष्य को पाकर । मुझे मेरा वजूद मिल गया है ।
(लाइट फेड आउट होता है ।)
।। समाप्त।।
