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Sangeeta Agarwal

Inspirational

4  

Sangeeta Agarwal

Inspirational

आशीष

आशीष

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रचना ने घर मे सबको आवाज़ लगाई-आ जाये सब,डिनर रेडी है...

सबसे पहले उसके ससुर दीनानाथ ही आये।बहु से बोले-ला बेटा,मुझे परोस दे खाना,देर रात खाया हुआ हज़म नहीं होता।

कहने को उन्होंने सामान्य बात ही कही थी पर रचना का मुंह बन गया,मन ही मन बड़बड़ाई-इन्हें सबसे पहले चाहिए,कामधाम तो कोई है नहीं बस भूख जरूर टाइम से लग आती है।

कुछ कहा बहु,वो बोले...रचना थोड़ा खिसिया गई,नहीं,वैसे ही कह रही थी,कहाँ गए ये सब,बबलू,पिंकी,बबलू के पापा...

कहती वो कमरे में घुस गई।

रचना को ऐसे उन्हें नहीं बोलना चाहिए था,जानती थी कि ये अशिष्टता है,पर दिनभर ऑफिस की खटपट के बाद आकर डिनर बनाना,सबको कई बार बुलाना,उसे थका देता और वो चिड़चिड़ी हो जाती,सारा गुस्सा बेचारे बाबूजी पर उतरता।

सुबह सुबह,वो जल्दी में होती,बबलू,पिंकी का टिफिन तैयार कर उन्हें खींचती बस में बैठाने जाती,खुद भी ऑफिस को देर न हो जाये की जल्दी में होती,ठीक उसी समय बाबूजी आवाज लगाते-बहु,जरा इधर आना...

वो भुनभुनाती हुई कमरे में आती और वो कहते,बेटा,जरा मेरा चश्मा साफ कर देना,वो झुक के उनके चश्मे को उठाती,साफ करती और पकड़ा के चल देती।

और फिर,बच्चों को बस में बैठा कर ऑफिस पहुंचती तो अक्सर देर हो जाती,फिर बॉस की डांट खानी पड़ती तो वो तिलमिला उठती।

शाम को चाय के वक्त,बाबूजी बच्चों से बोलना चाहते लेकिन सब अपने में व्यस्त,कोई होमवर्क कर रहा है,कोई मोबाइल पर गेम खेल रहा है।

बच्चों के पापा और उनका बेटा विवेक भी ऑफिस से आता तो सीधे बाथरूम में घुस जाता,वहां भी कानों में लीड लगाए बात करता रहता,चाय, खाना हर वक्त मोबाइल...

बेचारे बाबूजी,बात करें तो किससे?असहाय होकर अपनी धर्मपत्नी का फोटो देखते और बुदबुदाते-तुम कहाँ चली गईं सावित्री,मुझे अकेला छोड़ के...तुम बिन ये दुनिया मुझे काट खाने को दौड़ती है.. ये लोग हर वक्त मोबाइल पर रहते हैं,क्या कोई ऐसा मोबाइल भी ईजाद कर पाया है अभी तक जिससे मैं तुमसे बात कर सकूं।

उस दिन उन्होंने पिंकी को फोन पर किसी से बात करते सुना-यस बेबी,आई लव यू,आई मिस यू...

बबलू भी ऐसे ही बात करता रहता,उन्होंने कहा-क्या तुम्हारे फ्रेंड ऐसी बाते करते हैं?इतने छोटे बच्चे और इस तरह की बातें??

अरे दादाजी,अब ज़माना बदल गया है,ये सब कहना फैशन है,इसका मतलब वो नहीं होता जो आप समझ रहे हैं...बच्चे ये कह कर हँसने लगे।

बेचारे दादाजी को समझ नहीं आता,इतने छोटे बच्चों को ऐसा भी क्या प्यार दोस्तो को जताना पड़ता है...उनके समय में तो शादी के सालों निकल जाते थे और पति पत्नि की मुलाकात ही कठिन थी,बातें तो दूर की बात है।

खैर ज़माना बहुत आगे निकल चुका है और वो पीछे रह गए हैं।बस सारे दिन वो एक डायरी लिखते रहते,अपना सुख दुख उसीके साथ बांटते।

एक दिन उनकी तबियत अचानक खराब हो गई,विवेक उन्हें लेकर डॉक्टर के पास गया था,पीछे रचना उनके कमरे की सफाई करने लगी,अचानक उसके हाथ मे उनकी डायरी आ गई।उत्सुकतावश वो उसको खोल के देख रही थी कि एक पन्ना खुला,उसपर लिखा था-मेरी बहु रचना लाखों में एक है,कितनी मेहनत करती है सारे दिन,मैं भी उसे रोज तंग करता हूँ,बुला के कहता हूं,मेरा चश्मा साफ कर दे...अब ये आजकल के बच्चे नहीं जानते कि घर से बाहर निकलते हुए बड़े बूढ़ों का आशीर्वाद लेकर निकलना चाहिए,इसीलिए मैं बहाने से उसे रोज बुलाता हूँ,जब वो नीचे झुकती है तो चुपचाप अपना हाथ उसके सिर पर रख देता हूँ,अपने आशीष के रूप में.. 

रचना का दिल भर आया,उसके आंसू बह निकले,वो बाबूजी को कितना गलत समझती थी और वो उन्हें आशीर्वाद देते थे।

वो मन ही मन प्रार्थना करने लगी कि बाबूजी ठीक होकर जल्द घर आ जाएं।

वाकई में,अब रचना,पांच मिनट पहले तैयार हो निकलती घर से,बाबूजी का चश्मा साफ करती,बच्चे भी बाबाजी को बाय कहते,उनके पैर छूकर घर से निकलते,बाबूजी की बूढ़ी आंखों में असीम संतुष्टि नज़र आती।

आज बाबूजी को गए कई वर्ष बीत चुके हैं लेकिन रचना ने अपना रूटीन नहीं चेंज किया ,घर से बाहर निकलते वक्त,बाबूजी की फ़ोटो से बात करती है,उनका चश्मा साफ करती है और उनके अव्यक्त आशीष को अपने सिर पर महसूस करती है।

माता पिता एक वटवृक्ष की तरह होते हैं जो दृश्य,अदृश्य रूप से बच्चों को अपनी आशीष तले रखते हैं,उनकी सारी बलायें अपने ऊपर ले लेते हैं।ज्यादातर बच्चे जब तक ये बात महसूस करते हैं तब तक पेरेंट्स जा चुके होते हैं।कहते हैं एक व्यक्ति को उसकी पत्नि की जरूरत,उसके बुढ़ापे में सबसे ज्यादा होती है तो वो बूढ़े व्यक्ति जिनकी पत्नि उन्हें छोड़ के जा चुकी हूं,उनके विवाहित बच्चों और परिवार का ये परम दायित्व है कि वो अपने बुजुर्गों का ख्याल रखें,साथ ही बड़े बूढों को भी अपने बच्चों की बातों का ज्यादा बुरा नहीं मानना चाहिए,मतभे होने में कोई बात नहीं लेकिन मनभेद न हों, बस इसका ख्याल रखना है।



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