आस का दीप

आस का दीप

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आखिरकार 15 दिन वेंटिलेटर पर रहने के बाद शंकर लाल जी ने आज अंतिम सांस ली। भगवान की मर्जी के आगे उनकी पत्नी सुमन की सारी प्रार्थनाएं हार गई। घर परिवार में सबका रो रो कर बुरा हाल था। सबसे ज्यादा तो उनकी पुत्रवधू ने हाहाकार मचाया हुआ था। सभी उसे दिलासा देने में लगे हुए थे।

वही सुमन जी एक कोने में बैठी लाचार नज़रों से सबको देख रही थी। उनकी आंखों में आँसू का एक कतरा ना था। मानो 15 दिन में सारे आँसू सूख गए हो।

पड़ोसी व रिश्तेदार सब आपस एक दूसरे को यहीं तसल्ली दे रहे थे कि बूढ़ा शरीर था। इतने दिनों से बीमार चल रहे थे। कितने परेशान थे, अपनी बीमारी से। भगवान ने ज्यादा तकलीफ़ नहीं दी उनके शरीर को। वरना बिस्तर में लग जाते तो कितना दुखी होते हैं। परिवार वालों को भी ज्यादा तंग नहीं किया। भगवान उनकी आत्मा को शांति दे।

सुमन सब कुछ चुपचाप सुन रही थी। उनकी बातें सुन उनका मन कर रहा था, सबको चीख चीखकर कहे कि उनकी आत्मा को कभी शांति नहीं मिल सकती। आखिरी समय तक भी उनकी रूह प्यासी थी, अपने पोता पोती की एक झलक पाने को। जान बसती थी‌ दोनों में उनकी।

जो बहू इस समय लोक दिखावे के लिए इतने आडंबर कर रही है। जीते जी उसने चैन से एक गिलास पानी ना पीने दिया। हर तीसरे दिन झगड़ा करके चली जाती और इस बार ऐसी गई कि फिर लौट कर ना आई। बेटा तो किसी तरह अपना ग़म पी कर जी रहा था लेकिन इस बुढ़ापे में वह, यह सदमा ना झेल पाए।

जिस दिन होश आया था। इनकी आँखें दोनों बच्चों को ही ढूंढ रही थी। कितना कहा बहु को एक बार आ जाए लेकिन नहीं। अब आई है, जब सब कुछ लुट गया।

पर चाह कर भी वह कुछ ना कह पाई। बस मन में आस का एक दीपक टिमटिमा रहा था, जो होना था सो हो गया। शायद इस से ही बहू को सबक मिल जाए और बेटे की गृहस्थी फिर से बस जाए।



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