आंगन में चारपाई और मेहंदी
आंगन में चारपाई और मेहंदी
आंगन में चारपाई पुराने जमाने में तो हमारे घर में आंगन होता था रात के समय में आंगन चौक में ही सोते थे कभी छत पर कभी चौक में मैं आंगन हमको इतना प्यारा था, कि मैंने अपने घर में भी बहुत बड़ा आंगन चौक रखा है।
पहले तो वहां पर एक लोहे की चारपाई भी रखती रहती थी। मगर आप नहीं है क्योंकि समय बदल गया है ।
आंगन की चारपाई पर एक किस्सा याद आता है। त्यौहार के दिन थे मेरी दीदी ससुराल से आई थी और बुआ जी बुआ सब की लड़की और सब काफी लोग थे घर में हम सब बहने चौक में सोया करते थे उस दिन सब मेहंदी लगा रहे थे मैंने बिल्कुल मना कर दिया कि मैं मेहंदी नहीं लगवाऊंगी।
मुझे शुरु से ही मेहंदी का शौक नहीं है।
उस समय मैं करीब के 6, 7 साल की रही होंगी।
मेरी दोनों दीदियों ने बहुत कहा मां ने भी बोला मैं तो जैसे अड़ गई थी मैंने बोला मेहंदी नहीं लगवाऊंगी।
दोनों दीदी उन आंखों आंखों में क्या बात करी कुछ पता नहीं।
बोले कोई बात नहीं हम तेरे को कहानी सुना कर सुला देते हैं मैं भी उनकी बातों में आ गई, और दीदी के गोदी में सिर रखकर सो गई कहानी सुनने लगी कहानी सुनते सुनते नींद आ गई।
पता नहीं कब दीदी ने दोनों हाथों में मेहंदी लगा दी।
सुबह उठकर देखा तो सब खूब हंस रहे थे, बोले तू मेहंदी नहीं लगवाने वाली थी ना देख तेरी दीदियों ने तुझको छोड़ा नहीं दोनों मेहंदी लगाकर ही माने। और भाई साहब ने मेरे को बहुत चिड़ाया बहुत मजे लिए। आज इतने साल बाद में मेरा वह मधुर समय स्मरण करवा दिया। साथ में मेरी दोनों की दीदी भी याद दिला दी।
आज तो दोनों ही संसार में नहीं है ब्रह्म में विलीन हो गए हैं।
मगर उनकी स्मृतियां हमारे दिल में आज भी जिंदा है ।
कहीं गई नहीं बहुत प्यार करते हैं दीदी आपको बहुत याद करते हैं।
