आमंत्रण युद्ध का
आमंत्रण युद्ध का
जब देखो तब मुझे नीचा दिखाने की कोशिश आखिर चाहते क्या हो तुम मैं तुम्हारी बीवी हूँ कोई गैर नहीं। आजकल तो कोई गैरो से भी इस तरह बात नहीं करते है। हर वक्त तुम्हे बात बात पर गुस्सा आता है खरी खोटी सुना देते हो सामने वाले पर क्या बीतती होगी तुम्हे इस बात का अंदाजा ही नहीं है। अगर मैं भी तुमको युं ही बात बात पर तानें मारने लगुं उल्टा सीधा बोलु तो तुम्हे कैसा लगेगा। जरा सोचा है ?
नहीं न। सच ही कहते है जितना प्यार व मान सम्मान मायके मैं मिलता है ससुराल में कभी नहीं मिल सकता है। चाहे बहू हो या बीवी अपनी चमड़ी की जूती ही बना कर क्युं न पहना दे ससुराल वालो को मगर उनको कोई फर्क नहीं पड़ता। एहसान मानना तो दुर उनकी इज्जत भी नहीं करते है। मेरे मायके में पापा माँ भैय्या सब कितनी इज्जत करते है भाभी की। एक मैं ही पागल हूँ जो सबकी सुन कर भी सबके तलवे चाटती रहती हूँ।
दुनिया सही कहती है ससुराल में तो पैरो की जूती समझते है बहुओ को जब चाहा पेरो में सजा लिया जब चाहा उतार कर पैरो से सरका दिया। जब जरुरत नहीं तो घर के सबसे घटिया जगह पर रख देते है। या फिर पेैरो में ही रुलती फिरती है।
आवेश में आकर रति ने कुछ जादा ही सुना दिया भावेश को। और उसने उसकी बात को दिल से लगा लिया।
मैने जरा सा ये ही तो कहा था कि तुम कभी भी एक जैसे स्वाद की चाय नहीं बनाती हो। पर मुझे क्या मालुम था कि इतना सा कहना मुझे भारी पड़ जाएगा।
और फिर रति बोल पड़ी बस इतनी सी बात तुम्हारे लिए होगी इतनी सी बात मैं तो आहत हो गई अंदर तक कितने मन से बनाती हूँ सबके लिए चाय और चाय क्या सारे काम में दिल से करती हूँ। फिर भी कभी तुम्हारे मुँह से तारिफ के दो बोल नहीं सुनी आज तक। जब देखो तब नुक्ता-चिन्नी मेरे हर काम में और बोलते बोलते सिसकियाँ लेने लगी रति।
बेचारा भावेश अब पछता रहा था चाय में कमी निकाल कर। ओर दिन की तरह ही आज भी पी कर चला जाता तो ही भलाई थी। वो अपने मन ही मन बड़बड़ाने लगा मैने तो युं ही कह दिया था हँस के। मेरे साथ तो वही बात हो गई। मेरे जरा से बोलने ने बैलो को न्योता दे दिया आक्रमण के लिए। शायद इसी आमंत्रण को आ बैल मुझे मार कहते है अब तो मुँह पर पट्टी बाधँने में ही भलाई है लगती है। ये सोच कर वो बिना बताए ही घर से चला गया और पार्क के एक बैंच पर सर पकड़ कर बैठ गया।
