आक्रोश

आक्रोश

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१९४७ के बंटवारे के बाद जब सब कुछ बिखरा हुआ था, चारों तरफ बस हताशा और दर्द ही नज़र आता था, ऐसा लगता था जैसे लकीर ने देश के नहीं दिलों के टुकड़े कर दिए थे। उन्हीं दिनों में एक बार देर रात रामरतन अपने साइकिल रिक्शा को लेकर घर लौटा। दिन भर सवारियों का गुस्सा उसी के सामने निकलता। कोई जिन्नाह को गाली देता, तो कोई नेहरू को। कोई इन सब के लिए गांधी जी को कोसता। हर आदमी जो पहले सिर्फ इंसान, हमवतन था अब हिन्दू और मुस्लिम बन कर रह गया था।

रामरतन था तो एक मामूली रिक्शावाला उसे तो बस रोज़ की कमाई से मतलब होता। पर लोगो की बातें सुन सुन कर उसके मन में भी मुस्लिम कौम के लिए आक्रोश भर गया था। 

सारा दिन चिढ़ा चिढ़ा सा रहता और उस दिन तो ज्यादा सवारी भी नहीं मिली। गुस्सा झुंझलाहट अपने चरम पर था। पेट की आग सर चढ़ कर बोल रही थी। 

बच्चों का भूख से तरसता चेहरा आँखों के सामने घूम रहा था। 

घर का दरवाज़ा खोलते ही उसकी नज़र सामने बैठे बच्चे पर पड़ी जिसकी थाली दूध चावल से भरी हुई थी। 

पता नहीं कैसे उस ८ साल के मासूम को खाते देख रामरतन के अंदर का ज्वालामुखी फट पड़ा उसने आव देखा न ताव पास पड़ा लट्ठ उठा कर उस मासूम को पीटना शुरू कर दिया। 

घर वाली भीतर से भागती हुई आई। 

रामरतन का हाथ रोकने को कोशिश में दो चार लट्ठ उसे भी लग गए। 

बडी़ मुश्किल से रामरतन रुका तब तक बच्चा अधमरा हो गया था। उसकी घरवाली जैसे तैसे उसे उठकर अंदर ले गई ।जगह जगह खून बह रहा था सर में चोट थी। हाथ पैर भी बुरी तरह ज़ख़्मी। उसने बच्चे को खाट पर लेटाया उसके ज़ख्म साफ़ करते हुए रामरतन से बोली -

"क्या हो गया आपको? क्यों पीट दिया बेचारे को! इसकी गलती क्या थी? "

रामरतन का गुस्सा अब भी बाकी था, चिल्ला कर बोला-" इन्ही की वजह से देश की ये हालत है। सब कुछ बर्बाद करके रख दिया इन मुसलमानों ने। मेरा बस चले तो इन गद्दारो के टुकड़े कर दूँ।"

शांति सर पकड़ कर बैठ गयी। 

रोते हुए बोली-"तुमसे ये आशा नहीं थी। 

हम गरीब लोग, दो टाइम की रोटी मिल जाये वही बहुत है हमे क्या लेना इन सब बड़ी बड़ी बातों से। मेरे लिए तो मेरे बच्चों को मुफ्त में किताबें देने वाला, पढ़ने वाला वो मास्टर भला आदमी था कोई गद्दार नहीं। कुछ बड़े लोगों के सियासी खेल की सजा़ सारा देश भुगत रहा है। पर तुमने इस मासूम को पीटते वक़्त एक बार नहीं सोचा कैसे इसके पिता ने हम अनपढ़- गँवार लोगों के बच्चों को पढ़ाया वो भी मुफ्त में। उसी के कारन आज हमारे बच्चे स्कूल जा रहे हैं। जब भी ज़रूरत हुई अब्दुल्लाह भाई मदद को तैयार रहते थे । आज उनकी मौत के बाद इस नन्हें रेहान को देखने वाला भी कोई नहीं। माँ तो बचपन में ही गुज़र गयी थी बेचारे की और इस बंटवारें ने बाप का साया भी छीन लिया। अब तो जैसे हमारे दो पल रहे हैं वैसे ही इसे भी पालना है। और तुम भी दुनिया भर की बातों का गुस्सा घर आकर बच्चों पर ना निकाला करो। अब चलो मेरे साथ बच्चे को बहुत चोट लगी है। इसको दवाखाने ले जाना होगा।"

 कुछ घंटों बाद वही रामरतन रेहान को खून दे रहा था। 

उसके दिल का सारा आक्रोश कहीं दब गया था। उसे समझ आ गया था की ये सब सियासी बातें उसके मतलब की नहीं। उसे तो बस अपना घर देखना है तीनों बच्चों को पढ़ा लिखा कर काबिल बनाना है। 


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