आदतें ही ख़राब हैं
आदतें ही ख़राब हैं


नेहा की शादी को आठ साल हो गए थे, उसकी बिटिया थी चार साल की। सास ससुर, जेठ जेठानी, ननद और पति के साथ रहती थी। बेटी थोड़ी बड़ी हो गयी तो उसे संभालना मुश्किल हो रहा था, इसलिए उसने अपनी अच्छी खासी नौकरी छोड़ दी, ताकि सास ससुर बेटी को लेकर ज्यादा परेशान ना हों।
जब से नेहा शादी करके आयी थी, उसी ने सारे सामंजस्य बिठाये थे इस घर में। बाकी किसी की जिंदगी में कोई बदलाव नहीं हुआ था। पति नीरज की तो आज आठ साल बाद भी वही जिंदगी थी जो शादी के पहले थी। हाँ अब ज्यादा बिजी हो गया था, बस सास ससुर भी वही करते जो उनकी मर्जी होती थी। नेहा से तो जैसे किसी को कोई मतलब था ही नहीं, वो तो बस काम के लिये थी इस घर में।
नेहा की कोई विशेष पसंद नहीं थी, वो सबकी पसंद को अपनी पसंद बना लेती थी। हर जगह एडजस्ट कर लेती थी, नौकरी करती थी तो सुबह चार बजे उठ कर सब करके चली जाती थी और छुट्टी हो तो देर तक सो भी लेती थी। उसे दिन में सोने की आदत नहीं थी, कभी जरूरी हो तो सो भी लेती थी।
पर उसके सास ससुर और ननद और जेठानी जी को दिन में सोने की आदत थी, उसे ही नहीं थी। पहले तो काम पर जाती थी इसलिए आदत नहीं हुई और अब भी उसे नहीं लगता था दिन में सोना जरूरी है। वैसे भी उसकी सास ससुर को उसकी हर बात में कमी निकालने की जरूरत रहती थी। अब वो दिन में नहीं सोती तो इसी बात के लिए सुनाई जाती कि आदतें ही ख़राब है इसकी। दिन में सोना चाहिये समझ ही नहीं आता इसको।
नेहा को तो समझ ही नहीं आता कि इसमें क्या ख़राब है? जिसे सोना है वो सोये, जिसे नहीं सोना उसकी मर्जी। पर उसे रोज ही इस बात को लेकर ताने सुनने पड़ते थे। तो उसने भी नया तरीका निकाला। बेटी को लेकर कमरे में सुलाती और खुद भी सो जाती। फिर शाम तक उठती ही नहीं, ज़ब तक कोई उठाने ना आये। अब कोई बोलता कितना सोती हो! तो कहती क्या करूँ मेरी आदत यहाँ आकर ख़राब हो गयी। मैं तो दिन में सोती ही नहीं थी।
अब तो सबका बोलना बंद हो गया था, सोये तो फिर उठे ही ना, इसलिए अब उसे सोने का भी नहीं बोलते।