72 हूरें
72 हूरें
72 हूरों की चाह में अंसारी भाईजान भी निकल लिये। उनकी चाहत का आलम यह था कि सब्र नहीं हो रहा था इसलिए वे जेल से ही निकल लिये। जेल में अपने घर के बने लजीज खाने का लुत्फ उठाना हर किसी के नसीब में नहीं होता है लेकिन अंसारी भाईजान के लिए सब कुछ उपलब्ध है दुनिया में। लेकिन ये खाना ही उनके "निकलने" का कारण बन गया।
वो क्या है ना कि बेगम साहिबा खाना ही ऐसा लज़ीज बनाती हैं कि स्वाद स्वाद में दुगना खा जाते हैं भाईजान। एक तो रमजान का महीना और उस पर बेगम साहिबा के हाथों से बना खाना। माशाअल्लाह, पेट भर जाता है पर मन नहीं भरता है। सो खाते गये और निकल लिए। अब भाईजान को 72 हूरों से मिलने की इतनी जल्दी मची होगी, ये किसी ने नहीं सोचा था।
जैसे कि हर नौजवान जब अपनी माशूका से मिलने के लिए रवाना होता है तब वह नाचते गाते हुए अपनी मंजिल की ओर बढ़ता है। वैसे ही भाईजान भी मस्ती में गुनगुनाते हुए जन्नत की ओर चले जा रहे थे
तुमसे मिलने की तमन्ना है, प्यार का इरादा है, और एक वादा है जानम ।
पूरी फिजां में इश्क की स्वर लहरियां गूंजने लगी थीं। पता चल रहा था कि कोई दीवाना आज रहा है। अभी यह गाना पूरा हुआ ही था कि उनके होंठों से कुछ और तराने फूटने लगे
आज उनसे पहली मुलाकात होगी। फिर आमने-सामने बात होगी। फिर होगा क्या, क्या पता क्या खबर।
मिलने की हसरतों का कमाल है या उमंगों का धमाल, सफर कब कट जाता है, पता ही नहीं लगता है। भाईजान सीधे जन्नत के दरवाजे पर पहुंच गये। जन्नत में पहले से ही खबर पहुंच गई थी कि भाईजान आ रहे हैं इसलिए उनके स्वागत का खास इंतजाम करवाया गया था। उनकी पसंदीदा "लाइट मशीनगन" से 400 राउंड गोलियां दागीं गईं।
कुछ खातून उनकी टहल चाकरी में लग गईं। कोई भाईजान के हाथ मुंह धुलवाने लगी तो कोई ठंडा जल पिलाने लगीं। एक खातून तो एक गिलास में इंसानी खून लेकर खड़ी थी। कह रही थी कि भाईजान को यही सबसे अधिक पसंद है इसलिए जन्नत में उसके लिए यह "शेक" खास तौर पर बनवाया गया है। गौर से देखने पर पता चला कि वह "हलाल" सर्टीफाइड था। हलाल खूनी शेक देखकर भाईजान की बाछें खिल गई। एक झटके में ही पूरा गिलास गले से नीचे उतार लिया और उस नशे में उस खातून को कंधे पर डालकर एक कमरे की ओर बढ़ने लगा।
इतने में हूरों की एक मलिका ने आकर भाईजान से कहा "हुजूर ! गुस्ताखी माफ ! ये तो महज एक कनीज है, हूर नहीं है। इतनी जल्दी भी क्या है हुजूर ? पहले जन्नत की सैर तो कर लें, फिर हूरों की भी "सैर" कर लेना। आप जैसे महान शख्सियत को इन छोटी मोटी कनीजों को उठाना शोभा नहीं देता है।
जैसे ही भाईजान को पता चला कि वह हूर नहीं बल्कि कोई कनीज़ है, उसने उसे कंधे के ऊपर से ही छोड़ दिया। बेचारी कनीज़ धड़ाम से नीचे गिर पड़ी और दर्द से चीख पड़ी। उसकी चीखें सुनकर भाईजान ने एक जोरदार अट्टहास किया। भाईजान को औरतों की चीख सुनकर विशेष आनंद आता था।
वह मलिका भाईजान को एक खूबसूरत हॉल में ले गई। वहां पर पहले से ही कुछ लोग मस्ती कर रहे थे। एक एक आदमी को चार चार हूरों ने घेर रखा था। शराब और शबाब की कॉकटेल चल रही थी। भाईजान जन्नत में शराब की सप्लाई देखकर आश्चर्यचकित हो गये। पूछ बैठे "जन्नत में शराब ? मैं क्या कोई सपना देख रहा हूं" ?
"नहीं हुजूर, आप सपना नहीं देख रहे हैं। हकीकत में यहां एक खास किस्म की शराब परोसी जाती है। शराब धरती पर ही हराम है, जन्नत में नहीं। यहां तो लोग आते ही 72 हूरों और इस शराब के लिए हैं। आप यहां बिराजिये, अभी आपके लिए बंदोबस्त करती हूं"।
भाईजान वहीं पर पड़े एक सोफे पर पसर गये। इतने में चार पांच गिल्मे उसकी सेवा करने को आ गये। भाईजान ने आंखें तरेरीं। हूरों के बजाय गिल्मे देखकर भाईजान की त्यौरियां चढ़ गईं। भाईजान की त्यौरियों को देखकर मलिका मुस्कुराते हुए बोली
"थोड़ा सब्र से काम लीजिए महाशय। वो क्या है ना कि जन्नत में केवल 72 हूरें हैं और यहां 18 "लड़ाके" हैं। प्रत्येक लड़ाके के बंट में 4-4 हूरें आईं हैं। यहां के मुंसरिम साहब आपके लिए कोई न कोई व्यवस्था जरूर करेंगे तब तक इन "गिल्मों" से मन बहलाइये। पहले मैं आपको हमारे कुछ खास मेहमानों से रूबरू करवा देती हूं। इतना कहकर मलिका भाईजान का परिचय करवाने लगी
"इनसे मिलिए ये हैं अफजल गुरु। नाम के ही गुरु नहीं हैं, काम में भी गुरू हैं। पेशे से एक डॉक्टर थे लेकिन"जेहाद"का ऐसा भूत सवार हुआ कि "लड़ाके" बन गए। यहां जन्नत में आतंकियों और हिस्ट्रीशीटर को "लड़ाके" ही कहा जाता है। पाकिस्तान के मुजफ्फराबाद में आतंकी ट्रेनिंग करके आये और भारत में "काफिरों" को ठिकाने लगाने लग गये। इन्होंने न जाने कितने बम बनाये और फोड़े, खुद इन्हें याद नहीं हैं। और सन 2001 में संसद पर हमला तो इनका मास्टर स्ट्रोक था। इनको फांसी दे दी गई मगर इन्हें तत्कालीन सरकार से पूरी उम्मीद थी कि वह उसे बचा लेगी, पर नहीं बचा पाई। इनके नाम पर भारत में एक टुकड़े-टुकड़े गैंग काम कर रही है जिसका मुख्यालय जेएनयू है। वहां पर इन जैसे बौद्धिक लड़ाके तैयार किये जाते हैं"।
"इनसे मिलिए। ये हैं याकूब मेमन। मुंबई बम ब्लास्ट 1993 के अपराधी। 257 लोग मरे थे उस सीरीयल ब्लास्ट में। इसे फांसी की सजा सन 2007 में ही हो गई थी लेकिन राष्ट्रपति ने इसकी दया याचिका पूरे 7 साल अपने पास रोक कर रख रखी थी, कोई फैसला नहीं किया था। आखिर प्रणब दा जब राष्ट्रपति बने तब जाकर इसकी दया याचिका पर फैसला हुआ।
सुप्रीम कोर्ट के इतिहास में जो कभी नहीं हुआ वह याकूब मेमन ने कर दिखाया। देश के नामी गिरामी 12 वकीलों की टोली रात को 12 बजे सुप्रीम कोर्ट में पहुंच गई और उसने रात में ही सुप्रीम कोर्ट खुलवा लिया था। जानते हैं कौन कौन वकील थे उसमें ? मैं बताती हूं "प्रशांत भूषण, आनंद ग्रोवर, वृंदा ग्रोवर, इंदिरा जयसिंह जैसे कुल 12 नामी गिरामी वकील थे उसमें। पूरी रात सुनवाई चली और सुबह जाकर इन वकीलों की रिट खारिज कर दी गई। मालूम है मेनन के जनाजे में कितनी भीड़ थी" ?
"नहीं"
"पूरे 20000 दीनदार थे उस जनाजे में जो एक रिकॉर्ड है"।
"इनसे भी मिलिए। ये हैं अजमल कसाब। बचपन से ही "जेहादी" थे। 21 साल की उम्र में तो इन्होंने पाकिस्तान से आकर मुंबई में हमला कर दिया। उस हमले में 157 लोग मौके पर ही मर गये और सैकड़ों घायल हो गये। दीन की बहुत खिदमत की थी बंदे ने। दीन के लिए इसने काफिरों का तिलक अपने मस्तक पर लगाया। हाथों में कलावा बांधकर आया था वह भारत में। वो तो बेगैरत तुकाराम ने इसे जिंदा पकड़ लिया जिससे सारा भांडा फूट गया था वरना उस समय की सरकार ने इस आतंकी हमले को "भगवा आतंकवाद" के रूप में प्रचारित करने के सारे उपाय कर लिये थे। इन्हें भी फांसी पर लटका दिया था"।
"अब इनसे मिलिए, ये हैं अतीक अहमद साहब। ये ...
"बस बस बस। अरे, अतीक साहब और हम, दोनों का ही दबदबा था, है और रहेगा। हमने जो चाहा सो किया। किसी की हिम्मत नहीं थी जो हमें पकड़ ले। हमारे केसों से जज लोग खुद ही हट जाता करते थे। हमारे खिलाफ लगभग 61 मुकदमे और अतीक अहमद के ऊपर 100 से ज्यादा केस चल रहे हैं पर फांसी की सजा देने की हिम्मत नहीं पड़ी किसी जज की। अब आप ही बताइए कि इनमें से किसके हिस्से की हूर लेकर आपको दूं" ?
समस्या विकट थी। हूरें सीमित थीं। भाईजान भी हूरों के लिए ही इतनी जल्दी यहां आये थे, वह भी जेल छोड़कर और यहां हूर ही नहीं थी। भाईजान ने जन्नत में हंगामा खड़ा कर दिया। हंगामा होते देखकर मुंसरिम ने दो हूरें भाईजान के लिए भेज दी।
दोनों हूरों ने अपना बदन हिजाब में छुपा रखा था इस पर भाईजान भड़क गए। कहने लगे "यहां तो हिजाब हटा दीजिए मोहतरमा। हुस्न की एक झलक देखने के लिए हम कितने बेकरार हैं, ये तुम क्या जानो" ?
"हुजूर ? आप ही हिजाब के लिए जमीन आसमान एक कर रहे हैं जनाब और आप ही यहां हिजाब पर प्रश्न खड़ा कर रहे हैं ? ये सब क्या है" ?
इस पर भाईजान की बोलती बंद हो गई। अब वहां बैठे हैं इंतजार में कि कोई न कोई हूर तो अवश्य आयेगी उनकी खिदमत के लिए। आखिर भाईजान ने गजवा ए हिन्द के लिए क्या क्या नहीं किया था। वे उम्मीद पर हैं और उम्मीद पर दुनिया कायम है। 72 हूरों को उनकी खिदमत में आना ही होगा। इसके लिए चाहे उन्हें ओवरटाइम करना पड़े या कुछ और ! अगर 72 हूरें नहीं मिलेंगी तो भारत से "जेहाद" का नामोनिशान ही मिट जाएगा। क्या यहां के लोग ऐसा होने देंगे ? भाईजान के जनाजे में शामिल भीड़ ने यह जता दिया है कि 72 हूरों के लिए लाइन में लगने वाले लोग भरे पड़े हैं ।
