ज़िंदगी
ज़िंदगी
पेड़ों के पत्तों सी उड़ती ज़िंदगी,
गाडी के पहियों सी भागी ज़िंदगी,
चैन-ओ-सुकून एक पल को भी नहीं,
आग से उठते धुएँ-सी ज़िंदगी।
जाना कहाँ हैं कल का क्या पता,
फिर भी अपनी धुन में जिए जा रहे हैं ज़िंदगी,
कभी तो एक पल को ठहर के तू भी देख,
ज़िंदगी को कैसे जीती है ज़िंदगी।
ज़िंदा हो तो उसका सबूत भी तो दो,
क्या बस साँसों का चलना है ज़िंदगी,
ज़िम्मेदारियों और रिश्तों से हमे नहीं शिकन,
खुद के ही बोझ से दबी है ज़िंदगी।
फिर भी न गिला है न शिकवा है कभी भी,
सब कुछ तुझसे ही तो मिला है ज़िंदगी,
बचपन हो जवानी हो या बुढ़ापा हो मेरा,
तज़ुर्बों के तज़ुर्बे का सिला है ज़िंदगी।
अच्छा है या बुरा है कौन फैसला करे,
हम तो अपने रब से बस यही दुआ करें,
जब भी अलविदा हो इस जहाँ से मेरा,
दास्तान-ए-शहर हो की ऐसे जीते हैं ज़िंदगी।