टूटते ख्वाब...
टूटते ख्वाब...
पानी का बुलबुला बन
हर मुफलिस का
अरसे से संजोया हुआ
ख्वाब-ए-महफिल
मजबूरियों के बहाने
पिछले दरवाज़े से
चोरी-चोरी
निकल भागा करता है...!
तब लाख चाहे
कोई बेपनाह मुफलिस,
उसका वो ख्वाब
एक कोरा कागज़ बन
बेरहम वक्त के
बेलगाम हवाओं के झोंके
कहीं दूर उड़ा ले जाते हैं...
यही होता है अक्सर
ऊँचाई पर बैठे
वो मुफलिसों का
नसीब लिखनेवाले
एक पल के लिए भी
तह-ए-दिल से
बेइंतहा हक़ीक़त का
जायज़ा लेने
नहीं आते,
महज़ दूर से बेफिज़ूल
दिलासा दिया करते हैं!
वो इस बड़ी दुनिया को
बदलने का
खोखला ख्वाब दिखाने
चले आते हैं...
वो नहीं जानते हैं
कि मुफलिसी में जीना
क्या सज़ा-ए-मौत से कम नहीं।
