आज़ादी
आज़ादी
बड़ी सहमी सी थी माँ हमारी,
बंधी थी बेड़ियों से उसकी जिस्म सारी।
हर रोज़ तड़प कर यही कहती,
कब टूटेंगे ये बेड़ियाँ मेरी?
कब होगी आज़ादी की तमन्ना ये पूरी?
माँ के बच्चों से कहाँ छुप पाता ये सब,
थोड़ी तसल्ली हुई, उतरते देखा बच्चों को मैदान में जब।
कैसा था ये माँ के लिए गुरुर,
कर दिया सबको लड़ने पर मजबूर।
बगावत हुई, तलवार उठी, गोलियां चली,
जंग का मैदान बना मोहल्ला और गली।
खूब बरसी अंग्रेज़ों की लाठी और गोली,
मानो माँ के बच्चों ने खेली हो खून की होली।
दुखी थी वो माँ देखकर अपने बदन पर लाली,
पर नहीं थी वो आज़ादी से पीछे हटने वाली।
कैसे जाने देती वो अपने बच्चों की कुर्बानी,
जिन्होंने मान ली थी आज़ादी को अपनी ज़ुबानी |
एक दिन यह क़ुरबानी रंग लायी,
क्रांतिकारियों ने एक नयी इतिहास रचाई |
झुकना पड़ा अंग्रेज़ों को इनके आगे,
नए अरमान और सपने दिल में जागे |
कट गयी बेड़ियाँ और हो गयी माँ आज़ाद,
चेहरे पर मुस्कान ऐसी थी मानो,
जैसे दिल से करती अपने बच्चों का धन्यवाद |
