ज़िंदगी
ज़िंदगी
![](https://cdn.storymirror.com/static/1pximage.jpeg)
![](https://cdn.storymirror.com/static/1pximage.jpeg)
परंपरा, रीत और दस्तूर है
हर युग में ये मौजूद है,
माता-पिता के आँचल में,
ज़िंदगी इसमें भरपूर है
बचपन के खेल की परंपरा
जब घुटने चल कर आते हैं,
छिप के मिट्टी खा जाते हैं,
फिर पढ़ने लिखने जाते हैं।
परंपरा हम निभाते हैं
जब बात रीत की आती है,
जवानी की दहलीज लाती है,
प्रीत बांसुरी बजाती है।
प्रेमी- प्रेमिका मिल जाते हैं,
ले के गिटार फिर हाथों में,
प्यार का गीत सुनाती है.
एक और मोड़ फिर आता है।
परंपरा रीत से मिल जाता है,
हम तुम एक हो जाते हैं,
रिश्तों का वचन निभाते हैं,
एक जन्म में ही सात जन्मों का
बंधन हम निभाते हैं।
दस्तूर दुनियाँ का ये होता है.
बचपन भी बूढ़ा होता है,
जवानी हाथ छुड़ाती है,
परंपरा-रीत खुद को दोहराती है।
माता-पिता का आँचल
बच्चों के कंधे पर आता है,
रिश्तों का बंधन तब,
अपनी कसम निभाता है।
फिर अंत समय आ जाता है
हर रिश्ता यहीं छूट जाता है,
प्रीत की रीत मिट जाती है,
हर परंपरा मिट जाती है।
मरकर दस्तूर निभाते हैं,
हम ज़िंदगी जीकर जाते हैं।