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Dev Sharma

Inspirational

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Dev Sharma

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यूँ तो रावण न जलेगा

यूँ तो रावण न जलेगा

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बहुत हुआ अब बन्द भी करो ये खेल,

व्यर्थ में काम कागज के टुकड़े जलाने का।

जब तक जिंदा पुतले अकड़ कर खड़े हैं,

क्या लाभ फिर पुतला रावण जलाने का।।


अर्थ नित अनर्थ का पर्याय बनता जाता,

कुम्भकर्णी सी नींद में सब यहां सोये हैं।

मूक दर्शक की दर्शक दीर्घा में भीड़ बहुत है,

मेघनाद ले हाथ आहुति लिए कहीं खोए हैं।।


हर रोज अत्याचार सहती अनेकों सीता यहाँ,

कभी दहेज कभी लाचारी में घिरती जाती है।

कभी रीति रिवाज की दुहाई पर बलि चढ़ती,

कभी घुट घुट कर अकेले में मरती जाती है।।


खर दूषण दांत नाखून बढ़ाये आजाद घूमते,

फिर मारीच मायावी देह धारण कर भरमाता है।

कहीं कालनेमि फिर राह रोके हनुमान को रोके,

कहीं सुषेण वैद्य भी न संजीवनी ढूंढ पाता है।।


बाली की छलावा नीति अब सब सिर चढ़ी है,

अहिरावण छोड़ पाताल भूलोक पर विचर रहा ।

मजबूर विभीषण हाथ बाँधे मूक खड़ा देहरी पे,

न जाने क्यों बदन भरत का देख राम सिहर रहा।।


अब राम राज्य की कल्पना भी बेमानी लगती है,

फिर रावण वंश का अंत भला तब कैसे होगा।

जब तक कुर्सी की लोलुपता यहाँ बनी रहेगी,

बदन सीता का अशोक वाटिका से मुक्त कैसे होगा।।


        


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