युद्ध के बाद सैनिक - दो शब्द
युद्ध के बाद सैनिक - दो शब्द
यह युद्ध
किसी समस्या का अंत नहीं होता
मानवता यही पुकारती है--
फिर कौन है जिनकी अतृप्त रक्त क्षुधा
जो आकर सदा ललकारती है--
एक सैनिक ने
अपनी मां एक पत्र लिखा था-
शब्दों में उसके दिल का अनकहा दर्द छिपा था--
मां!
तेरे आशिर्वाद से
शायद मैं अभी तक जिंदा हूं-
कैसे बयां करूं व्यथा में अपनी
जीत कर भी शर्मिंदा हूं--
कितने जीवन की आस लिए -
अपने दिल में देश प्रेम का विश्वास लिए-
कुछ साथी
रक्त रंजित, कुछ डरे हुए हैं-
कुछ मानवीय अवसादों से भरे हुए हैं--
मां हम क्या पाने को बन गये थे दानव -
मां! जो तड़फ रहे
या मरे हुए हैं वो भी थे न मानव --
कल
उनकी मां का आंचल भी सूना होगा
कितनों के पुछे सिंदूरों का दर्द भी दूना होगा
कितने सपने टूटे होगें खाली फैली बाहों में
मां! कितनी बेदना - दर्द - बेबसी
होगी उनकी आहों में--
जब भी आंखे बंद करता हूं
सामने आता चीखों का वह मंजर --
क्यों मर गयी संवेदनाये हमारी
और रेगिस्तान सी हो गयी बंजर -
मां!
कितनी आंखे
इंतजार में कर प्रार्थना जागीं होंगी
कितनों ने अपनों के जीवन की मन्नत डोरी बांधी होंगी--
कितनी राखी के
धागे इस युद्ध भूमि में टूटे होंगे--
कितने वायदे प्यार-प्रीत के झूठे होंगे-
न सोचा न संमझा मैंने
बस मातृभूमि की
सुन कर एक पुकार गया हूं-
लेकिन मां!
न जाने क्यों ऐसा लगता है
युद्ध जीत कर भी मै कुछ न कुछ तो हार गया हूं.