यकीन नहीं होता
यकीन नहीं होता
यकीन नहीं होता कि किस तरह ढलता है वक्त
खुद ही खुद को वक्त के साथ धीरे धीरे भूलता है वक्त
मन जहन दिल और रूह की चारपाई पे दम तोड़ जाते हैं
वक्त के साथ कुछ सपने होले से नींदों को छोड़ जाते हैं
फिर यू ही कभी उन्हें ढूंढना चाहो तो सब अंजाने लगते हैं
जान पे हावी हो चुके किस्से बेतहाशा बेगाने लगते हैं
याद तो होते हैं मगर यादों में उनकी मौजूदगी दिखती नहीं
महफिल ए तन्हाई यूं ही आबाद हैं की उनकी कमी अब खलती नहीं
वो दर्द जो मय्यत ले आते यूं लगता हैं कभी जिए ही नहीं
जो बरस पड़े बेकदर बेसब्र वह बादल कभी छाए ही नहीं
सोच समझ से परे हैं वक़्त के खेल की नियमावली
कभी सवेरे जल्दी हुए तो कभी शामें देर से ढली ।