यह क्या हो रहा है
यह क्या हो रहा है
ना जाने सभी कैसे हो गए हैं?
जीवित होते हुए भी बेजान से हो गए हैं।
इंसान अपनी इंसानियत से हाथ धो रहा है
ना जाने ये क्या हो रहा है?
विश्वास बढ़-बढ़कर अंधविश्वास हो रहा है,
सगों से ज्यादा पैसा पास हो रहा है।
स्वार्थ के आगे प्रेम भी अस्तित्व खो रहा है,
ना जाने ये क्या हो रहा है?
क्रोध बढ़-बढ़कर अपना ही विध्वंस करता है।
अपने को काला स्वयं हंस करता है
भय को मन में जगाकर, साहस स्वयं सो रहा है,
ना जाने ये क्या हो रहा है?
समय का मोल नहीं है,
मीठा अब कोई बोल नहीं है।
दुख से पीड़ित हर्ष अब रो रहा है,
ना जाने ये क्या हो रहा है?
ना जाने सब क्यों बदल रहा है?
शांत तालाब भी ज्वार-भाटा सा मचल रहा है।
अब तो संयम भी धैर्य खो रहा है,
ना जाने ये क्या हो रहा है?
पर कभी ना बदले वो परम सत्य,
रहे सबके लिए एक सा नित्य।
पर उससे भी मुहँ मोड़े इंसान क्यों सो रहा है,
ना जाने ये क्या हो रहा है?