यादों का सफ़र
यादों का सफ़र
मुझे पता है मैं मिलूॅंगी फिर तुमसे,
कहाॅं होगी सुबह-शाम न जाने कैसे ?
तू अब भी बाकी है कल्पना में मेरे,
न जाने कितनी रातें बिताई खामोशी से ।
बस यही चाह रही मिलने की ख्वाहिश तुझसे,
तू लकीरों में है मेरी या कल्पना है मेरी
या एक रहस्यमयी सूरत है कोई,
कब मिलूॅंगी तुझसे पता नहीं कैसे,
एक शाम है एक लौ है सूरज की।
है धूलते हुए रंग-सी परछाई है तेरी,
इन रंगों को पकड़ बैठूॅं बाहों में मैं।
न जाने कब होगी ख्वाहिश तेरी,
पर हाॅं पता है पूरी होगी ख्वाहिश मेरी ।
मिलूॅंगी एक दिन जरूर मिलूॅंगी मैं तुझसे,
कल्पनाओं की वह लकीर फिर पूरी होगी।