वसुंधरा महक रही वसुंधरा
वसुंधरा महक रही वसुंधरा
वृक्ष हैं हरे भरे
लताओं से लिपटे खड़े
स्वपन सा लगा मुझे
कुसुम जमीं पे आ गए
वसुंधरा महक रही वसुंधरा
नदियां खिल खिला उठी
उछल के सागर से मिली
स्वपन सा लगा मुझे
कि नीर की गंगा बही
वसुंधरा पावन हुई वसुंधरा
झूमती सी वादियां
पपीहें गाते नाचते
स्वपन सा लगा मुझे
हर हुए हैं रास्ते
वसुंधरा हरित हुई...!
