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HARISH KANDWAL

Romance

4  

HARISH KANDWAL

Romance

वो तुम नहीँ

वो तुम नहीँ

2 mins
293


हर किसी को पीछे से देखा 

तो लगा कि वह तुम ही हो

जब वो मेरे सामने आए तो 

देखा को वह तुम ही नहीं हो।।


तुम कहीं से आवाज दोगे हमको

तुम कहीं से दिखाई दोगे हमको

हम हर किसी में ढूंढते रहे तुमको

लेकिन तुम कहीं नज़र नहीं 

आये इन बेताब निगाहों को।।


कहने को देखने को लगा था मेला

लेकिन तुम बिन मैं था वहाँ अकेला

उस भीड़ में भी हम तन्हा थे 

उन प्रेम दीवानों के बीच हम तन्हा थे।।


मचलती कड़कती धूप में भी 

हम पत्थरों पर भी ठोकर खाकर तुम्हें ढूंढते रहे

कभी इस तरफ कभी उस तरफ

कभी इस पार तो कभी उस पार

कभी सजी दुकानों के सामने तो

कभी रास्ते चलते राहगीरों की राह पार।।

कभी पेड़ो की छांव में कभी नदी के तीर पर।।


हर कोने कोने भटकते रहे 

ये सोचकर कि तुम यहाँ नहीं तो वहाँ जरूर होंगी

हमको इस तरफ नहीं तो उस तरफ मिल जाओगी

तुमको ढूंढते ढूंढते शाम ढल चुकी थी 

बहते अश्रु की धारा सुख चुकी थी।।


राहगीर अपने अपने घरों के लिए चल पड़े थे 

लेकिन हम खड़े खड़े तुम्हारी राह देख रहे थे

क्यों तुम नहीं आये यही हम सोचते रहे 

कभी तुम्हारी मजबूरी सोचकर

तुम्हें वफ़ा ठहराते रहे

तो कभी अपने तड़पते दिल को

देखकर तुम्हारा हमें तड़पने का

शौक देखकर तुमको हम बेवफा नाम देते रहे।।


तुम्हारा ना आना कोई मजबूरी था या मर्ज़ी

यह तो हम नहीं जानते

तुम क्या जानो हमारा हाल क्या था 

जैसे तपती धूप में किसी प्यासे को 

मृगतृष्णा को पानी न मिलने का मलाल था 

या जैसे अमावस की काली रात को 

चमकती चाँदनी का इंतज़ार था।।


हम तो दीवानों की तरह चले थे

इतनी दूर से एक झलक तुम्हारी पाने को

आँखों में हज़ारों ख्वाब लिए 

मन में अनेक बात लिए 

लेकिन जब तुम नहीं आये तो 

यह सब कांच के टुकड़ों की तरह बिखर गये 

ओर हम इन बिखरे ख्वाबों को

 लेकर तन्हा वापस लौट आये।।


(अपनी डायरी के पन्नों से) 



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