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Mitesh Gupta

Fantasy Romance

4.4  

Mitesh Gupta

Fantasy Romance

वो कुछ ऐसी थी

वो कुछ ऐसी थी

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वो कुछ ऐसी थी,

कभी चुड़ियों की खनक सी थी,

कभी बादलों की गरज सी थी,


कभी मुरझाई कली सी थी,

कभी चहकती हँसी सी थी,

वो कुछ ऐसी थी।


वो पहली मुलाकात में

बिखरना उसका,


और दूसरी का युूँ

इंतज़ार करना उसका,


रह रह कर सहेलियों से बातें बनाना,

उन बातों में फिर मेरा ज़िक्र लाना,


लगता ही नहीं अजनबी सी थी,

वो कुछ ऐसी थी।


जीवन के साहिल में किनारा थी वो,

टूटा जब मैं तो सहारा थी वो,


पहले छोटी सी ग़लती पे

तकरार करती थी,


फिर खुद ही मोहब्बत का

इकरार करती थी,


अंधेरों में आई रोशनी सी थी,

वो कुछ ऐसी थी।


तक़ीये पर "तरुण"

उसके बालों का मिलना,


कभी होठों से होठों का,

कभी गालों का मिलना,


वो अंतरंग घड़ियाँ

उसे याद करती हैं,


ये चादर की सिलवट भी

फरियाद करती है,


वो लिपटी हुई इक ग़ुदग़ुदी सी थी,

वो कुछ ऐसी थी।।


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