वो अनोखी आवाज़
वो अनोखी आवाज़
चेहरा कभी न देखा उनका
सिर्फ आवाज़ सुनी थी
उस आवाज़ की दिशा में चलते चलते
मैं एक दरगाह तक पहुँची थी।
भीड़ में वहाँ फँस गयी थी
आँखें उस शख्स को देखने को तरस गयी थी
क्या ऐसा जादू था उस आवाज़ में
कि मुझे दरगाह तक खींच लायी थी।
क्या किस्मत थी मेरी
कि मैं उस शख्स का चेहरा तक देख न पायी
जक तक मैं वहाँ पहुँची
उस जनाब की कव्वाली जो ख़त्म हुई।
धीरे-धीरे शाम ढल रही थी
न जाने क्या सोचते सोचते मैं चल रही थी
वो आवाज़ इतनी लाजवाब थी
कि अभी तक कानों में गूँज रही थी।
आसमान में तारें देख रही थी
वो कव्वाली याद कर के
सुख महसूस कर रही थी
इतनी सच्चाई भरी थी उस आवाज़ में
इसीलिए तो मुझे दरगाह तक
खींच लायी थी।
