विरह-वेदना
विरह-वेदना
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वो प्रेम विरह से अफ़सुर्दा, बेसुध हो होकर गिरती है
असफ़ार हुआ न प्रियतम का, बस आंस छोड़ना बाकी है
कितने मधुमास बीत गये, जाने ये कौन अज़ाब है
नयनो से नारी के बहता, छल-छल कर चश्म-ए-आब है
वो अकुलाई सी भाग-भागकर, राह निहारा करती है
कभी छत, मुंडेर कभी आंगन से, प्रीतम को पुकारा करती है
विरहा अग्नि में जल-जलकर, वो ख़ुश्क हो चुकी लगती है
ख्वाहिश जीने की त्याग चुकी है, प्राण त्यागना बाकी है।