विनती तुमसे।
विनती तुमसे।
पाप किए मैंने बहुतेरे ,
जो ना हो सकते अक्षम्य कभी भी।
कलियुग में कलियुगी बन गया,
ऐसा इसने मुझे बहलाया।।
अपने को कर्ता समझ,
अभिमान ने ऐसा डेरा जमाया।
सृष्टि के पालन कर्ता को,
कभी भी मन में ना लाने पाया।।
समझ ना सका अभी तक उसको,
पत्ता भी हिलता ना उसकी मर्जी पर।
फिर भी ना जाने क्यों ऐसा लगता ,
उसका ही यह सब खेल रचाया।।
मन की मलिनता तो देखो,
माया में ही फँस जाता है।
क्या यह है प्रभु की लीला ,
जिसमें प्राणी ने चक्कर खाया।।
मेरे नाथ !अब तो परीक्षा ना लो ,
अपने को सदा असफल ही पाया।
"नीरज" करता है विनती तुमसे,
बुद्धि- विवेक की भीख माँगने आया।।
