विचलित मन
विचलित मन
विचलित मत हो जाना रे मन,
धर धीरज धरती बन जाओ।
प्रेम प्रीत के गीतों को लिख
गीता के भी गीत सुनाओ।
माटी के दीपक हो माना,
अंधकार ने हठ है ठाना।
कर दैदीप्य वर्तिका प्रण की,
अंतर्मन के दीप जलाओ।
अंगारों से पथ हैं जलते,
मानव को मानव हैं छलते।
पीकर विष सम विश्व सिंधु को,
होठों पर मुस्कान सजाओ।
छाए हैं नभ में मिथ्या घन,
प्रज्ञा चक्षु खोल सूरज बन।
भ्रांति तिमिस्ना को पिघलाकर,
अमृत ज्ञान बिंदु बरसाओ।