वहम
वहम
डगर कुछ तो पथिक से मिली थी,
डगर कुछ तो पथिक से मिली थी।
दूर मन में कहीं असहज था,
पथ सही है, ये मन में वहम था।
जा रहा हूं किस ओर यह जानकर भी,
लक्ष्य फिर भी मन से कुछ अप्रतिभ था।
क्या पहुंचूँगा लक्ष्य तक मैं कभी को,
मैंने निरीह हो उत्सुक था जानने को।
अचानक किसी रव ने चौका दिया मुझे,
उस तंद्रामय रास्ते में जगा दिया मुझे।
जब लगा कोई तो जानता है यहां मुझे,
तब सब कुछ तिरोहित सा लगा मुझे।
यह उच्छवास की आह से निकली थी,
डगर कुछ तो पथिक से मिली थी।
डगर कुछ तो पथिक से मिली थी।।
जीवन गुमसुम सा था, हां कोई तिनका भी था,
वह विस्तीर्ण था, मर्त्य था, आविष्ट था।
निर्निमेष बस मुझे ही देख रहा था,
जैसे कुछ इशारा कर रहा था।
तभी मैंने संतोष की सांस ली थी,
डगर कुछ तो पथिक से मिली थी।
डगर कुछ तो पथिक से मिली थी।।