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Abhishek Pandey

Tragedy

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Abhishek Pandey

Tragedy

वे, जो शोषित हैं

वे, जो शोषित हैं

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देश था, इंसान था, 

परिवार था, सपने थे,

भूख थी, मजदूरी थी, मजबूरी थी!

तो लौटा वह मजदूरी करके 

हमेशा की तरह 

पूर्ण श्रम और अर्द्ध फल पा कर।

लेकिन चल गया उसपर

काल का काला पहिया 

कट गया सिर,

मिट गया अस्तित्व,

शुरू हुई राजनीति,

नहीं मिला मुआवजा, 

भटक रही है आत्मा।


अलग-थलग पड़े हैं 

हैं हाथ कहीं, 

कहीं कटे हुए शीश,

कहीं हृदय में ही 

सिमट चुकी हैं सांसे, 

कट चुकी है जिह्वा,

रुक चुकी है गति 

अधिकारों की, 

फिर भी ताक रहा है 

भूख से कचोटता हुआ 

वह अधमरा पेट।


खुली हुई हैं आंखें

मर रहे हैं सपने,

भाग रही हैं यादें, 

दौड़ रहा है मस्तिष्क,

समेट रहा है यादों को

पर पड़ जाती हैं 

बेड़ियाँ पैरों में;

गिर जाता है मस्तिष्क औंधे मुँह,

फिसल जाती हैं यादें, 

खुल जाती है बुद्धि।


माँगती है बुद्धि न्याय अब

पाषाण हो चुकी सरकार से

बार-बार खोल डालती है 

उस संविधान को 

जिसमें कैद है 

समानता का अधिकार 

कहीं किसी काले पन्ने में।


भागती है बुद्धि 

पूरी स्पीड से, 

दबोचती है उस 'जिह्वा' को

जिसने वायदे किए थे-

'रोटी , कपड़ा और मकान' का ,

'सुरक्षा तथा स्वाभिमान' का

पर फिसल जाती है 'जिह्वा'..

जल जाती है 'रोटी' 

फट जाते हैं 'कपड़े' 

और बिखर जाता है 'मकान'...


अंततः बच जाता है 

एक काला और अंधा सच।

जिसमें दौड़ रहा है 

एक खाली पिंजर 

जिसकी हड्डियां तक 

चूसी हुई हैं; 

जो शोषित है, 

क्षुद्र है,

नग्न है, 

असभ्य है। 

हाँ, वह 

वही मजदूर है! 

जिसे तुम्हारी कल्पनाओं ने

हक़ीक़त में निगल डाला; 

वही मजदूर जो कि 

आज मिट गया

तुम्हारी भूख को मिटाते-मिटाते।



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