जिक्र ए ज़हन
जिक्र ए ज़हन
वो क्या नज़र डाल पाएंगे पराए जिस्मो पर
जिनकी ज़वानी कट रही है पुरानी कसमो पर
माना की बदल गए है आशिक और आशिक़ी दोनो मगर
यकीं करने वाले लोग तो यकीं करेंगे मुहब्बत की रस्मो पर
कितने ज़मानो से सुनते आए है कि नाम में क्या रखा है
फ़िर भी लोग एक दूसरे से लड़ पड़े शहर के नामो पर
हमारे सारे दोस्त पढ़ लिखकर कमाने लगे है
और हम है कि गज़ले लिख रहे है इश्क़ के कारनामो पर
जिन्हें अपनी उदासी काम में आई शेरो शायरी के
उन्हें तो रात दिन इतराना चाहिए अपने गमो पर
वो अपनी आज़ादी के लिए तेरे दुश्मन से लड़ रहे है
और तुम हो की भरोसा कर बैठे दुश्मन के गुलामों पर
तरक्की के दो चार साल सभी के आते है "सौरभ"
मगर तुम्हें ज़माने खड़े करने है शोहरत के मकामो पर।