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Yogeshwar Dayal Mathur

Abstract

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Yogeshwar Dayal Mathur

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उम्र से बूढे

उम्र से बूढे

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उम्र से बूढ़े हुए मगर 

दिल से थे बूढ़े अभी नहीं

वक्त आज जवानों का था 

बूढ़ों का अब कुछ काम नहीं

कुछ कर गुजरने का जज्बा था

इसका मौका मिला नहीं

मलाल ज़हन पर हावी था

हुलिया बदल देखें तो सही


सिर पर एक भी बाल न था 

बालों का विग बनवा डाला

सफेद मूंछ ताका करती थी

काला खिजाब लगा डाल

आंखों पर चश्मा जरूरी था 

कॉन्टेक्ट लेंस बनवा डाला 

बत्तीसी में कमी थी पर 

मुस्करा कर उसे छिपा डाला

चेहरे से उम्र झलकती थी 

मेकअप से उसे संवारा था 

बहके कदम छुपाने को

अपनी छड़ी छिपा दी थी 


हर नज़रिये से कम उम्र जताने में

हमने सारे हथकंडे अपना डाले

पुश्तैनी आईने से रूबरू हुए

आदमकद शीशा हैरान हुआ

अच्छे खासे ज़हीन बुजुर्ग थे ये

पागलपन का दौरा कैसे पड़ा ?


एक जनाब तशरीफ लाए थे

हमारे लिए काम भी लाए थे

नन्ना पोता छड़ी उठा लाया

बोला, "दादू आप छड़ी तो भूल गए "

उस दिन भंडा फूट गया 

हम जवान नहीं बूढ़े ही थे

हिमाक़त का एहसास हुआ

जवान बनने के जुनून में

असलियत को थे भूल गए 

दिमागी फितूर काफूर हुआ

अपने भी हमें नहीं पहचान सके


सोचकर, घर के सरपरस्त है 

शान से मूंछों पर ताव दिया

हमने जैसे ही छड़ी पकड़ी 

दूसरा हाथ पोते ने थाम लिया


छड़ी, लड़खड़ाते कदम और पोता  

अब यही हमारी पहचान बने 

जवान नहीं उम्रदराज हैं 

हक़ीक़त को तस्लीम किया।


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