उमड़-घुमड़ बादल
उमड़-घुमड़ बादल
मन के उमड़ते भावों की तरह
उमड़ घुमड़ बादल
सीमाहीन क्षितिज तक
हर रोज निहारूँ
हर रोज विचारूँ
कितने रूप बदल कर आते
हर रूप मन को लुभाते ।
आज फिर मेरी बादल से मुलाकात हो गई
पेड़ो के ओट से ढलते सूरज की लालिमा लिए ....
पूछा मैने," कैसे हो दादा?"
वह मुस्कुरा या ,'ठीक हूँ।'
फिर बोला ,' हाल तो लोगों का पूछना है ,।
तुम से तो रोज मुलाकात होती है,
रोज तुम्हे देखता हूँ
प्रकृति को निहारते रिझाते
सोचा आज बात कर ही लूँ बहना।"
मैने कहा ,'आज कल आप बड़े सुंदर व स्वच्छ विचरण कर रहे हो ?'
उसने कहा ,'हाँ !आजकल मानव घर में हैं
गाड़िया - स्कूटर सब बंद,
प्रदूषण बिल्कुल ही कम।
अब मुृझे धुएँ से परेशान हो
आँखें नहीं मलनी पड़ती ।
दम घुटने पर गरजना नहीं पड़ता ।'
'हाँ यह तो सच है ',मैने कहा।
बहुत खिलवाड़ किया था प्रकृति के साथ
शातिर दिमाग ,नई नई चालें ।'
मैं हैरान ,कितना सच कहा बादल ने ।
तभी तेज हवा चली
लगा किसी ने सिर पर हाथ रखा
मानो आशीर्वाद दिया हो ।
मैने जल्दी से ऊपर देखा
बादल सिर के ऊपर से गुजर रहा था।
वहीं बैठ मैं यह नज़ारा निहारती रही..
नयनाभिराम....
देखती रही उमड़-घुमड़ बादलों को
उन्मुक्त पंछी से
आसमान में विचरण करते।