उचित नहीं
उचित नहीं
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भले न लगते आँधी- अंधड़, उड़े गगन में गंद ।
सरसराती मन चले पवन जब, धीमी-धीमी मंद ।।१
माता के माथे पर चिन्ता , की फिर खिंची लकीर ।
आँगन में उलझे हैं बेटे, छोड़ो भी अब द्वंद्व ।।२
बचा न कोई काल चक्र से, उसकी निश्चित चाल ।
नृप को भी खानी पड़ जाती , वन में जाकर कंद ।३
व्यर्थ न तानो तलवारों को, ढूँढो मिलकर आज ।
बहुत छिपे बैठे हैं अपने, घर में ही जयचंद ।।४
उचित नहीं हट होती भाई, कर देती बर्बाद ।
सोचो तो क्या-क्या खोया जब, हुआ देश था बंद ।।५
क्या लाये क्या ले जायेंगे, कुछ तो करो विचार ।
परवाना निश्चित आयेगा, कट जायेंगे फंद ।।६
अरी कली ! तू सावधान हो, खिलना अपनी डाल ।
व्याकुल भँवरे घूम रहे हैं, पाने को मकरंद ।। ७
विरह अग्नि की तपन न झिलती, पिघले मन ज्यों मोम ।
अंगारा सा लगे चमकता, आसमान में चंद ।।८
करें कृपा जब शारद माता, खुलते ज्ञान कपाट ।
'ज्योति' लेखनी तब लिखती है, अनुपम मधुरिम छंद ।।९