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महेश 'ज्योति'

Inspirational

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महेश 'ज्योति'

Inspirational

उचित नहीं

उचित नहीं

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भले न लगते आँधी- अंधड़, उड़े गगन में गंद ।

सरसराती मन चले पवन जब, धीमी-धीमी मंद ।।१


माता के माथे पर चिन्ता , की फिर खिंची लकीर । 

आँगन में उलझे हैं बेटे, छोड़ो भी अब द्वंद्व ।।२


बचा न कोई काल चक्र से, उसकी निश्चित चाल ।

नृप को भी खानी पड़ जाती , वन में जाकर कंद ।३


व्यर्थ न तानो तलवारों को, ढूँढो मिलकर आज ।

बहुत छिपे बैठे हैं‌ अपने, घर में ही जयचंद ।।४


उचित नहीं हट होती भाई, कर देती बर्बाद ।

सोचो तो क्या-क्या खोया जब, हुआ देश था बंद ।।५


क्या लाये क्या ले जायेंगे, कुछ तो करो विचार ।

परवाना निश्चित आयेगा, कट जायेंगे फंद ।।६


अरी कली ! तू सावधान हो, खिलना अपनी डाल ।

व्याकुल भँवरे घूम रहे हैं, पाने को मकरंद ।। ७


विरह अग्नि की तपन न झिलती, पिघले मन ज्यों मोम ।

अंगारा सा लगे चमकता, आसमान में चंद ।।८


करें कृपा जब शारद माता, खुलते ज्ञान कपाट ।

'ज्योति' लेखनी तब लिखती है, अनुपम मधुरिम छंद ।।९



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