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Prashant Paras

Romance

4.3  

Prashant Paras

Romance

तुमने ऐसे देखा

तुमने ऐसे देखा

1 min
48


छिछड़ जाए प्रेम तुम्हारा पत्थर

तन से मन मझधार पर

विरह में तुम्हारी यादों को सींचे,

रोज बरस कर जाओ प्रिय द्वार पर


स्वयं को सौंपकर, पिया तेरे द्वार पर

मेरे इतने भावों को तुम समेट भी न पाए

यौवन छलका निरंतर मर्म एक छुअन पर

तुमने ऐसे देखा कि देख भी न पाए

तन को सिंचित कर, मन से बैर कर


हृदय में व्यथाओं के शरशय्या पर संग लेट भी न पाए

पीड़ मंच पर मौन अधर अपनी संवेदनाओं को निचोड़ कर

तुमने ऐसे फेका कि फेक भी न पाए

विरह स्वर कण-कण से हरित लेकर कर


समय के ठहराव पर, अंग सचेत भी न पाए

दृग के दामन से पिछड़ तुमको तकती उठ-उठ कर

तुमने ऐसे रोका कि रोक भी न पाए

जग की ख्याति में अपनों से अराती में


क्षण-क्षण मन का चक्रव्यूह तुम भेद भी न पाए

अमृत छलका वेदनाओं के मंथन पर

तुमने ऐसे देखा कि देख भी न पाए।


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