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Prashant Paras

Abstract

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Prashant Paras

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अस्सी घाट

अस्सी घाट

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अस्सी घाट

पर जीवन का सार

वयाप्त है सीढ़ी-सीढ़ी पर

घाट-घाट पर

नीचे उतार में गंगा

चढ़ाव में शिव

उस पार रेत जो

जो प्रतिदिन सींचती

स्वयं को गंगाजल से


जहाँ हरिश्चंद्र ने धर्म को

किया स्थापित

और तुलसी ने राम की

मर्यादा को परिभाषित

जहाँ मेरे पिता कहते है

जरा ठगों से बचकर

जहाँ मेरी दादी कहती है

शीश झुकाना

कण-कण में बसे महेश

और हर जीवन

के चरण रज पर


दिनकर जहाँ अपनी रश्मि को 

पवित्र कर गंगा में बाँटता जग को

और जाता सौंप कर चंद्रशेखर को

आरती की ज्योति से तेज़ को

रजनी के दामन में बसे

संसार का दायित्व

नावों पर, कर्म पर, धर्म पर

कहीं कोई जीवन नहीं ठहरता 

मजबूर होकर

ठहरता है सिर्फ अंत के बाद

जन्म-जन्म के बंधन से, मोह से ।


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